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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
शताब्दी के अन्त में-जो कि राजशेखर के काल के कार्यों का परिचायक है-अपभ्रंश की विभिन्न बोलियों की विशेषताओं का दिग्दर्शन मिलता है।
इसके बाद तीन प्रमुख व्यक्ति हमारे सामने आते हैं जिन्होंने अपभ्रंश का स्पष्ट चित्रण किया है और उसके कई उपभेद भी किये हैं। उनमें हैं प्रसिद्ध टीकाकार नमिसाधु और प्राकृत वैयाकरण लक्ष्मीधर एवं मार्कण्डेय। राम शर्मा तर्कवागीश ने मार्कण्डेय की बातों का ही पिष्टपेषण किया है और लक्ष्मीधर ने भी कोई विशेष बात नहीं की है। नमिसाधु ने काव्यालंकार के 11-12 अध्याय करते हुए अपभ्रंश पर अपनी सम्मति व्यक्त की है-“प्राकृत ही अपभ्रंश है। इसका चित्रण दूसरे लोगों ने तीन नामों का उल्लेख करके किया है-1. उपनागर 2. आभीर 3. और ग्राम्या। नमिसाधु का कहना है कि इन्हीं उपभेदों को दूर करने के लिये रुद्रट ने अपने काव्यालंकार में कहा है कि अपभ्रंश के बहुत से भेद हैं। उसने यह भी कहा है कि यह भेद देश विशेष से होता है। उसका यह भी कहना है कि उसके लक्षणों को लोक से ही अच्छी तरह समझना चाहिये ।" नमिसाधु के प्राकृतमेवापभ्रंशः पर विचार
सर्वप्रथम हमें नमिसाधु के प्राकृतमेवापभ्रंशः उक्ति पर विचार करना चाहिये। नमिसाधु ने रुद्रट की जिस कारिका पर अपना विचार प्रकट किया है वह है :
प्राकृत-संस्कृत-मागध-पिशाच भाषाश्च शौरसेनी च। षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देश विशेषादपभ्रंशः।।
इस पर टीका करते हुए नमिसाधु ने सर्वप्रथम प्राकृत को स्थान दिया। प्राकृत की व्याख्या? उसने समस्त प्राकृत वैयाकरणों की व्याख्या से भिन्न की है। उसने प्राणि मात्र के. सहज़ स्वाभाविक वचन व्यापार को प्रकृति माना है। यह प्रकृति व्याकरण आदि व्यापार के सहज संस्कार से परे होती है। उस प्रकृति से बनने वाला