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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
विविध शाखाओं का वर्णन किया है। 'प्राकृत चन्द्रिका' के आधार पर अपभ्रंश के 27 भेद किये हैं। किन्तु मुख्य रूप से अपभ्रंश को उन्होंने तीन भागों में विभक्त किया है-1. नागर, 2. उपनागर, 3. ब्राचड़74 | नमिसाधु के ग्राम्या विभाजन की जगह इसने ब्राचड़ नाम का उल्लेख किया है। ब्राचड़ के सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि यह सिन्धु देश की अपभ्रंश है। उपनागर का अभिप्राय नागर और ब्राचड़. के संयोग से बनी हुई अपभ्रंश है और नागर अपभ्रंश मूल अपभ्रंश है। नमिसाधु ने ब्राचड़ का निराकरण कर ग्राम्या का उल्लेख किया था। उसका कहना था कि टक्की उसी अपभ्रंश की शाखा थी78 | इसी कारण मार्कण्डेय के अभिप्राय को हरिश्चन्द्र वैयाकरण ने स्वीकार नहीं किया है। पहले हम बता चुके हैं कि राजशेखर ने टक्की प्रदेश में अपभ्रंश बोले जाने का. वर्णन किया है। मार्कण्डेय ने जिन 27 अपभ्रंशों का उल्लेख किया है वे हैं-ब्राचड़, लाट, विदर्भ, उपनागर, नागर, बार्बर, आवन्ती, पञ्चाल, टक्क, मालवा, केकय, गौड़, उड्र, वैत्र, पाश्चात्यदेश, पाण्डय, कुन्तल, सिंहल, कलिग, प्राच्य, कर्णाटक, काञ्ची, द्राविड, गुर्जर, आभीर, मध्यदेश, और वैताल और आदि के भेद हैं | इस पर श्री चिमन लाल मोदी80 का कहना है कि अपभ्रंश के बहुत से भेद करने से अच्छा है अपभ्रंश की अनेकता का दिग्दर्शन मात्र कर देना। इससे हम उसे सीमा के अन्तर्गत बाँध देते हैं। वस्तुतः अपभ्रंश की बहुत-सी बोलियाँ रही होंगी। उन्हीं में से कुछ प्रमुख बोलियों का उल्लेख मार्कण्डेय ने किया है इससे अनेकता या विविध नामों के उल्लेख करने में बहुत अन्तर नहीं पड़ता। विविध नामों के उल्लेख करने से किसी भी भाषा की सीमा का ज्ञान होता है। यह तो भाषा के ज्ञान का बहुत ही स्पष्ट रूप है किन्तु मार्कण्डेय को इन विभागों से सन्तोष स्वतः नहीं था। उसने स्वतः कहा है कि अपभ्रंश के इतने सूक्ष्म भेद हैं कि उन्हें इन प्रधान विभागों से भिन्न नहीं माना जा सकता। अन्यत्र एक जगह और उसी ने कहा है कि सभी अपभ्रंशों का अतभाव इसी में हो जाता है |81 मार्कण्डेय का अनुसरण कर राम शर्मा तर्कवागीश ने भी उन्हीं