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हेमचन्द्रं के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
कहाँ-कहाँ हुआ, यह भाषा किन प्रदेशों में बोली जाती थी इस पर भी विचार किया गया है। जन साधारण की भाषा जब साहित्यिक रूप धारण कर लेती है, तब उसके दो रूप हो जाते हैं
1. भाषा परिष्कृत रुचि वालों की हो जाती है जिन्हें कि सुसंस्कृत और सुसभ्य लोग बोलने का गर्व अनुभव करते हैं।
2. जन साधारण की भाषा यानी बोली ही रहती है जिनमें ग्राम गीतादि होते हैं इत्यादि बातों का निदर्शन परवर्ती लेखकों से होता है। राजशेखर, नमिसाधु और मार्कण्डेय बहुत कुछ माने में इन बातों का स्पष्टीकरण करते हैं। राजशेखर द्वारा वर्णित अपभ्रंश ।
राजशेखर ने जो कि 10वीं शताब्दी में हुआ था अपनी 'काव्यमीमांसा' में अपभ्रंश के लिये विविध उद्धरण दिया है। उसने भी वस्तुतः साहित्यिक भाषा की दृष्टि से ही इस पर विचार किया है। उसने काव्य रूपी पुरूष के शरीर का चित्रण किया है। उसका कहना है-'संस्कृत मुख है, प्राकृत बाहु है और अपभ्रंश जंघा है, पैशाची को पैर और इन सभी के मिश्रण या मिश्र को ऊरू कहा है। जब वह राजदरबार में बैठने वाले राजकवियों का वर्णन करता है तब वह कहता है कि किस कवि को किस दिशा में (भाग में) बैठना चाहिये-"संस्कृत के कवि उत्तर की (कश्मीर पांचाल) ओर बैठें, प्राकृत कवि. पूर्व (मागधी की भूमि मगध) दिशा में बैठे और अपभ्रंश कवि पश्चिम (दक्षिणी पंजाब और मरु देश) की ओर बैठे और भूत भाषा (उज्जैन, मालवा आदि) कवि दक्षिण दिशा में बैठें8 |" राजशेखर ने साहित्यिक कवियों का चौतरफा विभाजन किया है जिससे कि भौगोलिक ज्ञान भी होता है। पं० चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का कहना है कि उसने अपने आश्रयदाता की राजधानी महोदय (कन्नौज से उसे बड़ा प्रेम था) कन्नौज और पांचाल की उसने जगह-जगह बड़ाई की है। कन्नौज को ही उसने भूगोल का केन्द्र माना है, कहा है कि दूरी की नाप कन्नौज नरेश के सिंहासन '