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अपभ्रंश भाषा
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की भाषा है अर्थात इसके बहुत से भेद हैं, इसके बहुत से क्षेत्रीय रूप हैं। विष्णुधर्मोत्तर 12 के खण्ड 3 अध्याय 7 में कहा है कि 'देशों में इतनी पृथकता एवं विभिन्नता है कि उसे लक्षणों द्वारा नहीं बताया जा सकता । अतः लोक में जिसे हम अपभ्रष्ट ( अपभ्रंश) कहते हैं वही - वस्तुतः उस विशिष्ट देश का अधिकारी रूप है। एक और दूसरी जगह विष्णुधर्मोत्तरकार (खण्ड 3, अ० 3) ने यहाँ तक कह दिया कि 'देश भाषा विशेष से अपभ्रंश के इतने भेद हैं कि उसका अन्त नहीं बताया जा सकता' 143 वाग्भट ने अपने वाग्भटालंकार में एक जगह तो भाषा चतुष्टय 44 में अपभ्रंश को स्थान दिया है- 'संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और भूतभाषा ये 4 काव्यशास्त्र के शरीर हैं।' तो दूसरी जगह उसका कहना है कि 'जिन जिन देशों में यह शुद्ध रूप से बोली जाती है वही अपभ्रंश है' अर्थात् जहाँ कहीं भी इस भाषा में मिलावट है वहीं दूसरी भाषा के रूपों का भी समवाय हो गया है उसे हम अपभ्रंश नहीं कहते । प्रतीत होता है कि इस समय देश विदेशी आक्रामकों से आक्रान्त हो रहा था, राजनीतिक उलट पलट हो रहा था । इससे भाषा में भी संक्रान्तिकालीन अव्यवस्था फैल सी रही थी । अपभ्रंश भाषा जो कि जन सामान्य की भाषा थी उसके प्रति परिष्कृत रुचि वालों का ध्यान आकृष्ट करने के लिये ही संभवतः अलंकार शास्त्रियों ने ऐसी बातें कहीं हो ।
रामचन्द्र और गुणचन्द्र ने नाट्यदर्पण " में कहा है कि कुरु से लेकर मगध आदि देशों की भाषा में भाषा का मूल रूप सुरक्षित है। उसी में अपने देश सम्बन्धी भाषा का गठन करना चाहिये। इस कारण इसे और देशी भाषा को अपभ्रंश के अन्तर्गत ही रखना चाहिये ।
भाषात्रय के अन्तर्गत अपभ्रंश का स्थान
कुछ आचार्यों और कवियों ने अपभ्रंश को भाषात्रय (संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश) के अन्तर्गत स्थान दिया है। अपभ्रंश के गद्य और पद्य दोनों में काव्य लिखे जाते थे । भामह, स्वयंभू, हेमचन्द्र आदि ने अपभ्रंश को भाषात्रय के अन्तर्गत स्थान दिया है । भामह,