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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
(कथ्य भाषा) नहीं। शिलालेख की प्राकृत (500 ई० पू० से 100 ई० पू० तक का काल) पालि से निरन्तर विकसित होती रही और तब वैदिक संस्कृत से परिनिष्ठित संस्कृत की रचना हुई। शिलालेखी प्राकृत से साहित्यिक प्राकृत बनी और इस साहित्यिक प्राकृत का काल 100 ई० से 500 ई० तक का काल मान सकते हैं। इसके बाद जनभाषा क्षीण होती गई। यद्यपि इसके बाद भी पुस्तकें लिखी जाती रहीं। अपभ्रंश का काल 500 ई० से 1000 ई० तक का समय माना जाता है। इस प्रकार इन विद्वानों के अनुसार पहले प्रारम्भिक (प्राइमरी) प्राकृत थी या विभिन्न प्रांतीय वैदिक बोलियां थीं जिससे कि शिलालेखी प्राकृत निकली और शिलालेखी प्राकृत से साहित्यिक प्राकृत भाषा विकसित हुई। यह प्राकृत 5वीं और छठी शताब्दी की है। हम यह कह सकते हैं कि मृच्छकटिकम् के रचयिता शूद्रक के समय में यह प्राकृत जनता में अच्छी तरह से प्रचलित थी क्योंकि इस नाटक में प्राकृत की सभी बोलियों का अच्छी तरह से दिग्दर्शन कराया गया है। इस तरह हम देखते हैं कि जब आर्य प्रजाएं विजेता की हैसियत से भारत में आयीं तब उनकी भाषा को अनेक आर्येतर प्रजाओं की भाषा से मुकाबला करना पड़ा और उसके बाद ही आर्यभाषा ने भारत में अपनी सांस्कृतिक जड़ जमा ली। वैदिक काल से लेकर ब्राह्मण काल तक आर्यभाषा इस प्रकार की सांस्कृतिक स्पर्धा में पूर्णतया विजेता रही। इस काल की आर्यभाषा भारतीय आर्यभाषा की प्रथम भूमिका है। इस काल के बाद आर्यभाषा का स्थल और काल की दृष्टि से गतिशील विकास होता रहा और इस विकास के साथ ही आर्य भाषा की दूसरी भूमिका आरम्भ होती है, यह भूमिका है-प्राकृत । जब आर्य पूर्व प्रजाएं अपनी भाषा छोड़कर इन आत्रन्तुक आर्यों की भाषा को अपनाने लगी होगी और वह भी भिन्न-भिन्न स्थलों पर भिन्न-भिन्न काल में, तब अनेक तरह की प्राकृतों का प्रादुर्भाव हुआ होगा और इस धारणा से हम अनेक तरह की प्राकृत पाने की आशा रख सकते हैं। किन्तु जब हम प्राकृत साहित्य की ओर दृष्टि डालते हैं तब भिन्न परिस्थिति उपस्थित होती है। प्राप्त प्राकृतों में प्राचीनतम