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प्राकृत
सभी परिनिष्ठित भाषाओं की तरह जो कि सुसमृद्ध तथा उच्च स्तरीय साहित्य की होती हैं-पालि एकरूपता की भाषा नहीं है। न तो इसकी स्पष्ट रूप रेखा ही है। दूसरी ओर मध्य भारतीय आर्य भाषा की बहुसंख्यक भाषाओं पर इसका प्रभाव दीख पड़ता है। यद्यपि भाषा वैज्ञानिक रूपता में म० भा० आ० के पूर्व काल का प्रतिनिधित्व करती है। पालि के कम्पोजिट स्वभाव की तुलना प्रा० भा० आ० के परिनिष्ठित संस्कृत और वैदिक संस्कृत से की जा सकती है।
पालि साहित्य की विशेषता के विषय में विभिन्न मत हैं। पालि की परम्परा पर ध्यान देते हुए यह विदित होता है कि बुद्ध के काल के पहले भी पालि की परम्परा थी। किन्तु उसके किसी निश्चित काल के विषय में जानकारी प्राप्त करना संभव नहीं है। तीन 'बौद्ध वाचना' (कौंसिल) की परम्परा देखते हुए, भिक्षुओं के पहले की पालि की सत्ता के विषय में, प्रमाणाभाव के कारण कोई निश्चित काल बताने में असमर्थ हैं। तृतीय शताब्दी ई० पू० अशोक के समय, कुछ विशिष्ट भू-भागों में उसकी निश्चित सत्ता स्वीकार कर सकते हैं। अशोक के काल में ही तीसरी सभा की बैठक 'तिस्स' की अध्यक्षता में हुई थी। किन्तु पुराकालीन भिक्खुओं की भाषा वही पालि नहीं थी जो कि आज हमारे सामने है। समस्त मौर्य साम्राज्य के ऊपर बौद्ध धर्म के फैल जाने के कुछ ही दिनों बाद अशोक ने विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं में बुद्ध का उपदेश फैलाया। इस समय तक भिक्खु लोग एकरूपता की परम्परा से पृथक हो रहे थे। इन विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं का प्रभाव पालि पर अवश्य पड़ा होगा। इस तरह यह भाषा समस्त साहित्य का माध्यम बनी होगी। विभिन्न भाग के भिक्षुओं की विभिन्न भाषाओं के प्रयोग से प्रमाणित होता है कि भिक्खुओं की भाषा में मिलावट है। 247 ई० पू० अशोक के शिलालेखों (वैरात, भानु के शिलालेख) से यह सामान्यतया मान लिया गया है कि पालि के तिपिटक के सत्त और विनय का विभाजन हो चुका था और इनकी सत्ता स्वीकृत