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प्रथम खण्ड : २५
उस समय मेरा स्थायी निवास जयपुर ही था। अतः आयोजित चर्चा प्रारम्भ होनेके नियत दिवसपर प्रातःकाल ही मुझे यकायक स्व. पं० चैनसुखदासजीका टेलीफोन प्राप्त हुआ कि पं० फुलचन्दजी बनारससे चर्चामें भाग लेने आ गये हैं। आपको बुलाया है। मुझे आश्चर्य हुआ और पहुँचकर मैंने पण्डितजी साहबको सोनगढ़का निर्णय भी सुनाया, तो पण्डितजीने कहा-भाई, आगम हमारे साथ है, जो भी हमको ज्ञान है, उसको प्रस्तुत करने में क्या डर है ? उसपर भी यदि हमारी कोई भूल होगी, तो हमें स्वीकार करने में क्या संकोच है ? और हम तो अब वाराणसीसे आ गये है सो अब वापिस तो जावेंगे नहीं। आप हमारे साथ रहना चाहें तो ठीक, अन्यथा हम अकेले ही जावेंगे । उनके इस निर्णयके आगे मुझे भी नतमस्तक होना पड़ा। पण्डितजीने यह भी कहा कि चर्चामें जाने के पूर्व पं० श्री टोडरमलजी साहबकी साधनास्थली-जहाँ बैठकर टोडरमलजीने आगमका अध्ययन किया था, वहाँकी भूमिको नमन करके चर्चा में चलेंगे। फलतः हम दोनों तेरापंथी मन्दिर (जहाँ वे शास्त्र-प्रवचन करते थे) गये । दर्शनादि करके हम दोनों ही अपनी कार द्वारा नियत समयपर नियतस्थान खानियाकी नशिया पर चर्चाके लिए पहँच गये। हमारे वहाँ पहुँचते ही सब आश्चर्यमें पड़ गये, क्योंकि उनको यह अनुमान नहीं था ।
फलतः उपस्थित विद्वान् जिनमें स्व० पं० श्री मक्खनलालजी शास्त्री मुरैना मुख्य थे, आचार्य महाराजके सामने एकत्रित हुए और चर्चा प्रारम्भ होनेके पूर्व तत्सम्बन्धी नियम-उपनियम बनाये गये। इस बीच ही आयोजनकर्ताओंने सारे भारतके चोटीके विद्वानोंको तार देकर एकत्रित किया। इस प्रकार खानिया चर्चा प्रारम्भ हो गयी।
नियम-उपनियम बनाते समय पंडितजी की दृढ़ता एवं गहरी सूझबूझका मुझे प्रत्यक्ष परिचय हुआ । अपर पक्षकी ओरसे सर्वप्रथम प्रस्तुत किया गया कि निर्णायक कौन होगा? उनका उद्देश्य किसी प्रकार किसी को भी निर्णायक ठहराकर अन्तमें सोनगढ़की मान्यताओंको आगम विरुद्ध घोषित करना था । अतः पण्डितजीने सर्वप्रथम यह निर्णय कराया कि चर्चा लिखित होगी और दोनों ही पक्षोंकी चर्चाको दोनों मिलकर प्रकाशित
तः निर्णायककी आवश्यकता नहीं रहती। निर्णायक तो पाठक ही रहेगा: इस चर्चाका निर्णायक कोई नहीं होगा। फिर भी एक अध्यक्ष नियुक्त कराने पर जोर दिया गया, ताकि वे विवादस्थ मुद्दा उपस्थित होने पर अपना निर्णय दे सकें। लेकिन पण्डितजीने अपने बलिष्ठ तर्कों द्वारा स्वीकृत करा लिया कि इस चर्चामें मात्र लिखित उत्तर-पत्रोंका आदान-प्रदान ही होना है। अतः अध्यक्षके स्थान पर मात्र मध्यस्थको हो रखा जावे और मध्यस्थके लिये नाम उपस्थित होने पर भी मात्र प्रौढ़ विद्वान ही मध्यस्थ होना चाहिए । इस स्वीकृतिके द्वारा स्व० पं० श्री बंशीधरजी शास्त्री इन्दौर निवासीको मध्यस्थ नियुक्त किया गया ।
इसके बाद दूसरा विवादग्रस्त मुद्दा उपस्थित किया गया कि चर्चामें मात्र संस्कृत प्राकृतमें ग्रन्थों के प्रमाण ही उपस्थित किये जा सकेंगे। इसमें भी अपर पक्ष चतुराईसे अप्रमाणिक संस्कृत ग्रन्थोंको मान्य कराते हुए, मोझमार्ग प्रकाशक आदि प्रामाणिक हिन्दी साहित्यको अमान्य घोषित कराना चाहता था। उसका भी पण्डितजी ने बड़ी दृढ़ताके साथ निषेध करते हुए अपर पक्षके द्वारा ही यह स्वीकृत करा लिया कि वर्षों के पहलेके सभी ग्रंथ चाहे वे हिन्दीके भी क्यों न हों प्रमाणिक माने जाव तथा प्रमाणरूपमें चर्चा में प्रस्तुत किये जा सकेंगे।
इस प्रकार चर्चाकी विधि तय हुई कि शंका उपस्थित करने वाला पक्ष जो भी शंका उपस्थित करेगा, उस शंका पर उत्तर-प्रत्युत्तरके रूपमें तीन दौरं ही चलाये जा सकेंगे, उससे आगे उत्तर-प्रत्युत्तर नहीं चलेंगे तथा दोनों ही पक्ष लिखित रूपमें अपनी-अपनी शंका दूसरे पक्षके सामने प्रस्तुत कर सकेंगे।
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