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८] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [तृतीय पर इसके साथ ही मनमें यह भी विचार उठा कि-किसी सार्वजनिक संस्थाके तंत्रके साथ सम्बद्ध हो कर कार्य करना और वस्तु है और किसी धनिक या बडी गिनी जानेवाली व्यक्तिविशेषके साथ सम्बद्ध रह कर कार्य करना और ही वस्तु है । संस्थाके तंत्र में तो एकाधिक व्यक्तियोंका सम्बन्ध और सहकार रहता है और उसमें समानभावका प्राधान्य रहता है, इसलिये कहीं कार्यमें मतभेद होनेके अवसर पर भी, किसी व्यक्तिविशेषका हस्तक्षेप उतना कार्य विक्षेपक नहीं हो सकता जितना केवल किसी अकेले व्यक्तिके विचार पर किसी कार्यके होने-न-होनेकी परिस्थितिमें हो सकता है। सिंघीजी यद्यपि आज स्वयं कार्य करनेका अनुरोध कर रहे हैं, पर यदि किसी कारणवश उनके साथ मतभेद उपस्थित हो गया, तो फिर उस कार्यकी क्या स्थिति हो सकती है
और अपने व्यक्तित्वका क्या स्थान हो सकता है। जैन समाजके अच्छे अच्छे धनिकोंका मुझे प्रत्यक्ष या परोक्षरूपमें इस विषयका बहुत कुछ अनुभव हो चुका था। इसके पूर्व ही मैंने, पूनामें एक बडी जैन संस्थाका निर्माण किया था जिसके बनाने में बहत परिश्रम भी उठाया था और धन भी जुटाया था। परन्तु अन्धश्रद्धावाले अज्ञान वणिकोंके साथ अपने विचारस्वातंत्र्यका और ध्येयका मेल मिलता न देख कर, एक अनाथ बालककी तरह उस संस्थाको निराधार छोड कर, मुझे उससे उपरत हो जाना पड़ा था। ऐसी ही कोई अनिच्छनीय परिस्थिति यदि सिंघीजीकी इस संकल्पित संस्थाके बारेमें उपस्थित हो जाय तो, अपने मनकी उस समय क्या प्रतिक्रिया होगी? उसके भी कुछ उडते विचार आंखोंके सामनेसे गुजर गये। इस तरह, वह अवशेष रात यों ही तरह तरहके विचारोंकी तन्द्रामें व्यतीत हुई।
सिंघीजीके कुटुम्बका धार्मिक भाव ने देखा कि सिंघीजीका कौटुम्बिक वातावरण पुराने खयालोंकी दृष्टि से बहुत कुछ
धर्मनिष्ठ है। उनकी माताजी मानों साक्षात् धर्मकी मूर्ति ही है । तप, जप, नियम, स्वाध्याय आदि उनके घरमें अच्छे ढंगसे चल रहे हैं । यद्यपि मूढ रूढिप्रियताका कोई विशेष चिन्ह नहीं दिखाई दिया, तब भी पुराने रीति-रिवाजोंका ठीक ठीक आदर और व्यवहार दृष्टिगोचर हुआ। बडी तिथि - अष्टमी चतुर्दशी जैसे दिन घरमें हरी तरकारी नहीं बनती है। आलू वगैरह जैसे कंदमूलमें गिने जानेवाले शाक-पानका व्यवहार कभी नहीं होता है। घरमें छोटेसे ले कर बडे तक कोई भी इन चीजोंका उपयोग नहीं करते । पावरोटी और मक्खन तो कभी मकानमें घुसने भी नहीं पाते हैं । परिवारमें चहा-कॉफीका रिवाज भी प्रायः नहीं है। अल्बत्त, महेमानोंके लिये उसका बन्दोबस्त जरूर रहता है। इस तरह मैंने देखा कि सिंघीजीके घरमें रूढिकी दृष्टि से धार्मिक गिने जानेवाले भाचार - विचारका अच्छी तादादमें परिपालन होता रहता है। __ यद्यपि मैंने सुन रखा था कि सिंघीजी स्वयं बहुत कुछ उदार विचारके और सुधारप्रिय व्यक्ति हैं । पर उनके घरमें उसके चिन्ह मुझे बहुत कम दिखाई दिये। इससे मेरे मनमें एक यह भी विचार उपस्थित हुआ कि -सिंघीजी अपने पिताकी स्मृतिके उपलक्ष्यमें जो कार्य करना चाहते हैं वह एक प्रकारका सांप्रदायिक कार्य है-जैन संप्रदायका ही उस कार्यके साथ मुख्य संबंध है। सिंघीजी स्वयं जैन समाजके एक
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