________________
तिर्यंच-पंचेन्द्रिय । तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों के कई भेद हैं। कोई हाथों और पैरों के सहारे चलता है, कोई सिर्फ हाथों के अथवा पैरों के ही सहारे चलता है, कोई आकाश में चलता है, इत्यादि अनेक भेद हैं। इनके भी असंख्य असंख्य स्थान हैं।
___मनुष्य पंचेन्द्रिय जीव के दो भेद हैं :- गर्भज और संमूर्छिम। जो जीव गर्भ से उत्पन्न होते हैं, वे गर्भज कहलाते हैं और मल, मूत्रादि अशुचि स्थानों में उत्पन्न होने वाले संमूर्छिम कहलाते हैं। मल-मूत्रादि से उत्पन्न होने वाले भी कोई-कोई जीव मनुष्य कहलाते हैं। उनका शरीर अंगुल के असंख्यातवें भाग के बराबर होता है। इस कारण यद्यपि वे दिखते नहीं हैं, तथापि वह भी मनुष्य ही कहलाते हैं।
बहुत से लोग घरों में टट्टी जाते हैं और टट्टी सड़ती रहती है और उसमें जीव उत्पन्न होते रहते हैं। जब जीव उत्पन्न हो जाते हैं तब उन पर दया करने की बात सोचते हैं। लेकिन जीव जब उत्पन्न हो जाएंगे, तब उन पर क्या दया की जायगी? बेहतर तो यह है कि वहां जीव उत्पन्न ही न होने दिये जाएं। घर में टट्टी जाने से और टट्टी सड़ती रहने से क्या-क्या हानियां होती हैं, इस बात को जब तक भली भांति न समझ लिया जाय तब तक अहिंसा और स्वास्थ्य दोनों ही की रक्षा नहीं हो सकती।
संमूर्छिम मनुष्यों के भी असंख्य स्थान हैं और गर्भज मनुष्यों के भी असंख्य स्थान हैं।
रत्नाप्रभा पृथ्वी की मोटाई (जाड़ाई) की पोलार में वाणव्यन्तर देवों के असंख्य निवास स्थान हैं।
आगे ऊपर चन्द्र-सूर्य ग्रह हैं। चन्द्र-सूर्य यहां से तो एक एक ही दीखते हैं लेकिन तिर्यक् लोक में असंख्य द्वीप हैं और एक-एक द्वीप में अनेकानेक सूर्य हैं।
ज्योतिष-चक्र के ऊपर सौधर्म नामक पहला देवलोक है। यहां बत्तीस लाख विमान हैं। दूसरा ऐशान नामक देवलोक है, उसमें अट्ठाईस लाख विमान हैं। इसी प्रकार तीसरे सनत्कुमार देवलोक में बारह लाख, चौथे माहेन्द्र देवलोक में आठ लाख, पांचवें ब्रह्मलोक में चार लाख, छठे लान्तक में पचास हजार, सातवें शुक्र में चालीस लाख, आठवें सहस्रसार में छह हजार, नौवें आनत में और दसवें प्राणत में चार सौ, ग्यारहवें आरण और बारहवें अच्युत देवलोक में तीन सौ विमान हैं। इनके ऊपर नौ ग्रैवेयक विमान हैं। उनके तीन हिस्से हैं। पहले हिस्से में एक सौ ग्यारह, दूसरे में एक सौ सात और तीसरे १८ श्री जवाहर किरणावली
-