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जैन सिद्धान्त तो कहता ही है, मगर श्रुतियां भी यही बात कहती हैं । एक जगह कहा है – यह आत्मा पृथ्वी के भीतर रहता हुआ भी पृथ्वी से अलग है - रहा यह पृथ्वी में है, मगर पृथ्वी नहीं है। जैसे देह और देही अलग है, उसी प्रकार पृथ्वी और पृथ्वी में रहने वाला जीव अलग है। आत्मा पृथ्वी को जानता है, मगर पृथ्वी आत्मा को नहीं जानती । आत्मा ने पृथ्वी का शरीर धारण कर रक्खा है।
जैन शास्त्र 'पृथ्वीकायिक जीव कहता है। पृथ्वीकायिक का अर्थ-पृथ्वी जिसका शरीर है, ऐसा जीव ।
बृहदारण्यक में कहा है-पृथ्वी आत्मा का शरीर है। आत्मा पृथ्वी में रहता हुआ उसे प्रेरित करता है । 'यश्चायमस्यां पृथ्वीव्यां तेजामयऽमृतपुरुषा' इत्यादि। ( पंचमब्राहम् )
जैन शास्त्रानुसार पृथ्वीकाय के जीवों में काय का योग है या नहीं? अवश्य है। पृथ्वीकाय का जीव व्यंजन भी करता है, मगर बारीक होने से दीख नहीं पड़ता । है । बृहदारण्यक में कहा है- वह आत्मा अन्तर्यामी है और अमृत पृथ्वी के समान पानी के संबंध में भी यही बात है । पानी भी आत्मा काही खेल है। आत्मा ने ही परमाणुओं को पकड़ कर पानी बनाया है। आत्मा पानी में है, मगर पानी से अलग है। पानी को वह जानता है, पर पानी उसे नहीं जानता । वह पानी में रहता हुआ, पानी में प्रेरणा उत्पन्न करता है। वह अंतर्यामी है और अमृत है ।
इसी प्रकार वायु, अग्नि, मन आदि के लिए भी श्रुति है । तात्पर्य यह है कि अजीव को पकड़ने वाला जीव है। अजीव आप ही समुदित नहीं हुआ है, इसे समुदित करने वाला जीव है। आप जरा आंख खोल कर देखिए । सोइए मत, जागिए ।
"थाने छा आई अनादि की नींद, जरा टुक जोवो तो सही ।" जोवो तो सही चेतनजी जोवो तो सही
"जरा ज्ञानादि जल छांट गगन पट धोवो तो सही"
ज्ञानी पुरुष अपने और पराये आत्मा का अभेद करके कहते हैं- जागो ! अनादि काल की नींद भंग करके जरा देखो कि सामने क्या है ? मोह रूपी अनादि कालीन निद्रा का परित्याग करो ।
आप सोचते होंगे - हम कैसे जागें? हमें कौन-सी नींद सता रही है? मगर नहीं, यह नींद ऐसी है कि कठिनाई से पहचानी जाती है । यह अज्ञान १६८ श्री जवाहर किरणावली