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शरीर मां के पेट में बनता है, इस अपेक्षा से शरीर-रहित आता है। आत्मा, संसार-अवस्था में कभी अशरीर नहीं होता। अशरीर आत्मा तो केवल सिद्ध भगवान् है। आहारक तो पेट में भी नहीं बनता है।
कोई आत्मा अभी शरीर-रहित है किन्तु आगे शरीर धारण कर लेगा, ऐसा कदापि नहीं हो सकता। ऐसा मानने पर मुक्ति का अभाव हो जायगा। मुक्ति का अर्थ ही सूक्ष्म शरीर का त्याग करना है। जिसका सूक्ष्म शरीर नष्ट हो गया है, वह कभी स्थूल शरीर ग्रहण नहीं कर सकता। स्थूल शरीर सूक्ष्म शरीर से ही उत्पन्न होता है। सूक्ष्म कार्मण शरीर से स्थूल औदारिकादि शरीर बनते हैं। भाव-शक्ति होने पर ही द्रव्य काम आता है। भाव-शक्ति के अभाव में द्रव्य काम नहीं करता। इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर रूप शक्ति से ही स्थूल शरीर बनता है।
सामान्य रूप से शरीर के पांच भेद हैं- “औदारिक वैक्रियाहारक तैजस कार्मणानि शरीराणि (1) औदारिक (2) वैक्रिय (3) आहारक (4) तैजस और (5) कार्मण।
उदार का अर्थ स्थूल भी है, प्रधान भी है और जल्दी नाश होने वाला भी है। मनुष्य'शरीर (औदारिक) प्रधान इसलिए माना जाता है कि तीर्थंकर अथवा अन्य मोक्ष जाने वाले सभी औदारिक शरीर में प्रकट होकर ही मोक्ष जाते हैं। मोक्ष धर्म की साधना इसी शरीर से हो सकती है, दूसरे शरीर से नहीं। यह औदारिक शरीर सात धातुओं से बना हुआ और स्थूल-देखने में आने योग्य
दूसरा शरीर वैक्रिय है। दिव्य धातुओं से बना शरीर वैक्रिय कहलाता है। मनुष्य का शरीर मिट्टी का बना है और वैक्रिय शरीर दिव्य धातु से बना है। वैक्रिय शरीर विविध क्रियाओं से युक्त होता है। औदारिक शरीर वाला मुख से ही खा सकता है, परन्तु वैक्रिय शरीर वाला सब तरह से खा सकता है। औदारिक शरीर वाला, दरवाजे से ही घर के बाहर निकल सकता है, वैक्रिय शरीर वाला दीवार में से छिद्र के बिना ही निकल सकता है। वैक्रिय शरीर वाला सिर से भी चल सकता है। इस प्रकार वैक्रिय शरीर वाला विविध क्रियाओं से युक्त होता है। यह सब होने पर भी वैक्रिय शरीर की महत्ता ज्यादा नहीं है। वह अमर्यादित भ्रष्ट शरीर है। मुंह से खाते-खाते कान से भी खाने लगे, क्या पता? वैक्रिय और औदारिक शरीरों में ऐसा ही अन्तर है, जैसे राजा और नट में होता है। राजा मर्यादित है, नट अविश्वस्त है।
औदारिक शरीर वाला कर्मनाश करके दिव्य ज्ञान पा सकता है परन्तु वैक्रिय २१४ श्री जवाहर किरणावली