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किसी अखबार में पढा था कि एक फांसी की सजा पाये हुए कैदी को डाक्टरों ने मांग लिया। डाक्टरों ने कहा-हम इस पर प्रयोग करेंगे। डाक्टर उसे अपनी प्रयोगशाला में लाये। कैदी से कहा गया-तुम्हें फांसी का हुक्म हुआ है। वहां भी मरना पड़ता और यहां भी मरना पड़ेगा। वहां तकलीफ से मरते, यहां आराम से मरोगे, कैदी ने कहा-जो मर्जी हो, करो, मैं तो हुक्म सुनते ही एक प्रकार से मर चुका हूं।
डाक्टरों ने कैदी की आंखों पर मजबूत पट्टी बांध दी और उसे एक आराम टेबल पर लिटा दिया। फिर एक नली लगा दी उस कैदी के शरीर से खून टकप रहा हो वैसा उसे अनुभव कराते हुए डाक्टर कहने लगे-ओफ! इसके शरीर से तो बहुत खून बहा जा रहा है! कैदी की आंखों पर पट्टी थी। वह कुछ देख नहीं सकता था और डाक्टरों के कथनानुसार यही समझता था कि मेरे शरीर से रक्त निकल रहा है। थोड़ी देर में यह कैदी अपने अध्यवसाय के ही कारण मर गया।
आज के बहुत से लोग मस्तक की खटपट में पड़ कर हृदय की बात भूल जाते हैं। किन्तु शास्त्र कहता है कि राग, द्वेष, भय आदि अध्यवसाय से भी आयु नष्ट होती है। भारत के बहुत से लोगों का अध्यवसाय ही उनकी मृत्यु का कारण होता है। कई अनाड़ी वैद्य भी रोगी के सामने 'यह नहीं बचेगा' कह कर उसे घबराहट में डाल देते हैं। इसी तरह और लोग भी बीमार को कहते हैं-अमुक को भी यही बीमारी हुई थी और उस बीमारी ने उसके प्राण ले लिये। इस प्रकार की बातें सुनकर कई-एक केवल भय के मारे ही मर जाते है।
लोगों ने भूत-प्रेत और डाकिन आदि का भय भी बना रक्खा है। किन्तु शास्त्र कहता है-मारने वाला भूत नहीं है, किन्तु भूत का भय है। जितने लोग रोग से नहीं मरते, उतने भय से मर जाते हैं। भय की महामारी बहुत जबर्दस्त है। लोग यह नहीं सोचते कि कदाचित् मृत्यु आ भी गई हो तो क्या भयभीत होने से बच जाएंगे? हां, निर्भयता से बचाव हो भी सकता है, अतएव भय न करना ही अच्छा है।
बहुत सी माताएं बच्चों को भय दिखलाती रहती हैं। उन्होंने 'हौआ नामक एक अद्भुत तत्त्व का आविष्कार किया है। उसके भय से कोमल बुद्धि बालक कांप उठते हैं। पहले के कई-एक अध्यापक भी तरह-तरह के भीषण भय बतलाया करते थे। ऐसा करके बालक को सुधारा नहीं जा सकता, वरन् बड़ा होने पर भी वह डरपोक और कायर रह जाता है। जापान का पांच वर्ष
- भगवती सूत्र व्याख्यान २५७