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कायिकी, आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी-इन तीन क्रियाओं से स्पृष्ट है अर्थात् तीन क्रिया वाला कहलाता है और जब तक वह जाल को धारण किया हुआ है और मृगों को बांधता है, किन्तु मारता नहीं है, तब तक वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी और पारितापनिकी-इन चार क्रियाओं से स्पृष्ट है और जब वह पुरुष जाल को धारण किया हुआ है, मृगों को बांधता है और मारता है, तब वह कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपात क्रिया-इन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट है-अर्थात् पांच क्रिया वाला है। इस कारण हे गौतम! वह पुरुष यावत् पांच क्रिया वाला है।
व्याख्यान ___ एकान्त पण्डित, एकान्त बाल और बालपण्डित का विचार हो चुका है। अब क्रियाओं के विषय में विचार किया जाता है; क्योंकि नरक या देव आदि का आयुष्य क्रिया से ही बांधता है। जीव जैसी क्रिया करता है, वैसा ही आयुष्य बांधता है।
क्रिया के दो भेद हैं-शुभक्रिया और अशुभक्रिया। अशुभक्रियाएं पांच हैं:- (1) कायिकी-काया द्वारा होनेवाला सावध व्यापार कायिकी क्रिया है। (2) आधिकरणिकी-हिंसा के साधन जुटाना आधिकरणिकी क्रिया है। (3) प्राद्वेषिकी-हिंसा के साधनों का उपयोग करना। (4) पारितापनिकी-जिसे मारने का विचार किया है उसे पीड़ा पहुंचाना। (5) प्राणातिपात क्रिया-जिसे मारने का संकल्प किया था उसे मार डालना।
गौतम स्वामी पूछते हैं-भगवन्! कच्छ आदि स्थानों में मृग रहते हैं और किसी आदमी ने मृग मारने की आजीविका अंगीकार कर रक्खी है। वह आदमी गुफा, जंगल आदि मृग रहने के स्थान पर, मृग को मारने के संकल्प से गया। उसने मृग को फंसाने के लिए जाल फैलाया। तो हे भगवन्! उस जाल फैलाने वाले को कितनी क्रियाएं लगीं?
भगवान् ने उत्तर दिया-हे गौतम! केवल जाल फैलाने पर तीन क्रियाएं लगीं, मृग के फंसने पर चार क्रियाएं लगीं और मृग को मार डालने पर पांच लगीं।
शास्त्र में कहा है कि प्रतिक्रमण करने वाला साधु अगर प्रतिक्रमण करने में असावधानी करता है तो उसे पांच क्रियाएं लगती हैं। वह छह काया के जीवों का विरोधक माना जाता है। इधर गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् फरमाते हैं कि शिकारी पुरुष ने जब मृग मारने का संकल्प कर लिया है, मृग मारने का उपाय कर लिया है, तब भी उसे तीन ही क्रियाएं
- भगवती सूत्र व्याख्यान २६७