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अगर गृहस्थ इन्हें छोड़ने चले तो उसे दूसरी प्रकार की और अधिक क्रियाएं लगेंगी। हां मुनिधर्म का पालन करने की इच्छा वाला पुरुष इन्हें अवश्य छोड़ता है और उसे छोड़ना भी चाहिए। सूनाकर्म से बचने के लिए बहुत-से सत्कार्य बतलाये हैं; जैसे अतिथिसत्कार आदि । इस प्रकार गृहस्थजीवन में क्रिया लगती तो है ही, मगर जहां तक बन सके, भारी क्रिया नहीं लगने देना चाहिए। मृग मारे बिना संसार का काम चल सकता है, मगर आग के बिना नहीं चल सकता। फिर भी तीन, चार और पांच क्रियाओं का विचार रखना ही चाहिए ।
फिर गौतम स्वामी पूछते हैं- भगवन्! एक आदमी मृग मारने की आजीविका व्यापार करता है। वह दिन-रात मृग मारने का ही अध्यवसाय रखता है। ऐसा मनुष्य वन, झाड़ी आदि किसी स्थान पर जाकर 'यह मृग है, इन्हें मारूं' ऐसा संकल्प करके उन पर बाण का संधान करता है। भगवन्! इस पुरुष को बाण छोड़ने पर कितनी क्रियाएं लगेंगीं?
गौतम स्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया- हे गौतम! कदाचित् तीन क्रियाएं लगती है, कदाचित् चार और कदाचित् पांच ।
तब गौतम स्वामी पूछते हैं- भगवन् ऐसा क्यों? भगवान् ने कहा- हे गौतम! उस आदमी ने बाण चलाया है मगर वह अभी बीच में ही है- मृग को लगा नहीं है। तब तक उसे तीन क्रियाएं लगती हैं। जब मृग को लगा नहीं है तब तक उसे तीन क्रियाएं लगती हैं। जब मृग को बाण लग गया और उसे पीड़ा हो रही है, पर मरा नहीं है, तब तक चार क्रियाएं लगती हैं और मर जाने पर पांच क्रियाएं लगती हैं।
यहां विचारणीय यह है कि शिकारी ने मृग को मारने का संकल्प किया, उसकी नीयत उसे मारने की हो गई, फिर भगवान ने तीन, चार और पांच क्रियाएं क्यों कही हैं? क्या शारीरिक क्रिया ही हिंसा का कारण है ? मन के विचार का पाप नहीं लगता है? अगर ऐसा नहीं है तो इस कथन का आशय क्या है ?
शास्त्र में कायिक और मानसिक- दोनों प्रकार के पाप बतलाये गए हैं। मानसिक क्रिया से मानसिक और कायिक क्रिया से कायिक पाप लगता है । व्यवहार में शारीरिक क्रिया ही मुख्यता से ली जाती है और निश्चय में तो मानसिक संकल्प होते ही जीव पापी बन जाता है। निश्चय की बात व्यवहार २७६ श्री जवाहर किरणावली