Book Title: Bhagwati Sutra Vyakhyan Part 03 04
Author(s): Jawaharlal Aacharya
Publisher: Jawahar Vidyapith

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Page 268
________________ यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जीव अपनी आयु के तीसरे भाग में भावी भव का आयुष्य बांधता है, तो फिर दो भागों में आयुष्य टूटता तो नहीं है? उदाहरणार्थ-सौं वर्ष के जीवन में से 66 वर्ष तक भावी भव का आयुष्य नहीं बांधता और अंतिम तेंतीस वर्ष में आयुष्य बंधता है। ऐसी अवस्था में छयासठ वर्ष के आयुष्य में से तो आयुष्य नहीं टूटता? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि अपनी असवधानी से आयुष्य टूटता है। अमेरिका के लोगों की औसत उम्र पचपन वर्ष की मानी जाती है, अन्यान्य देशों के मनुष्यों की औसत उम्र भी 50-45 वर्ष के लगभग गिनी जाती है, किन्तु भारतीय जनता की सिर्फ चौबीस वर्ष की उम्र है। इसका प्रधान कारण यह है कि भारतीय सावधानी नहीं रखते। अगर यह कहा जाय कि जिस देश वाले जितनी आयु लाते हैं, उतनी ही भोगते हैं, तो इस कथन से भारत के निवासी ही पुण्यहीन ठहरते हैं और अमेरिका वासी अधिक से अधिक पुण्यवान् सिद्ध होते हैं। फिर यह भी स्वीकार करना होगा कि भारत में धर्म-कर्म कम है और अमेरिका में ज्यादा है। लेकिन यह विचार सही नहीं है। भारत आर्य क्षेत्र है, इसलिए धर्म का वास यहीं है। पाश्चात्य विद्वान डाक्टर मैक्समुलर ने कहा है कि धर्म और साहित्य का जैसा प्रचार भारत में हुआ है, वैसा प्रचार और कहीं नहीं हुआ। जब अन्य देशों के लोग भी भारत के धर्म की बड़ाई करते हैं, तब भारत को पुण्यहीन कैसे कहा जा सकता है? आयुष्य को जितना अधिक यत्नपूर्वक रक्खा जाय उतना ही अच्छा और स्थायी वह रहेगा। किसी दीपक में रात भर जलने योग्य तेल है। अगर एक बत्ती से जलाया जाय तो वह रात भर प्रकाश देगा। अगर एक के बदले दो बत्तियां जलाई जाएं तो तेल आधी रात में ही समाप्त हो जायगा। यही बात आयुष्य के विषय में है। जीव परलोक से आयुष्य अवश्य लाया है, मगर यत्न सहित उसका उपयोग करना स्वयं उसका काम है। यह बात में अपनी ही ओर से नहीं कहता। शास्त्र में भी आयु का नाश होना कहा है। शास्त्र का प्रमाण पहले दिया जा चुका है। जीव का भेद (नाश) हो जाना उपक्रम कहलाता है। उपक्रम के दो भेद हैं-परिक्रम और विनाश । वृक्ष में पानी और खाद देने से उसके फलों में भी सुन्दरता आ जाती है और वह वृक्ष अधिक दिनों तक ठहरता है। यह परिकर्म कहलाता है। इसी प्रकार वृक्ष की जड़ों में नमक डाल देने से वृक्ष जल्दी सूख जाता है, यह विनाश कहलाता है। तात्पर्य यह है कि भगवती सूत्र व्याख्यान २५५

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