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परिकर्म से आयु अधिक दिनों तक रहती है और विनाश से उसका जल्दी अन्त आ जाता है।
आयु नष्ट होने के सात कारणों में पहला कारण अध्यवसाय अर्थात् राग, द्वेष, भय आदि है । अध्यवसाय से आयु का शीघ्र नाश होता है । अतिस्नेह, अतिक्रोध, अतिभय इत्यादि सब आयुनाश के कारण हैं।
सुना है, एक यूरोपियन के यहां एक भिश्ती रहता था। साहब ने उस भिश्ती के नाम से एक-दो रुपये लॉटरी में लगा दिये । संयोगवश लॉटरी में पहला नंबर भिश्ती का ही निकल आया। एक लाख रुपये का प्रथम पुरस्कार था। साहब के पास तार आया। साहब बहुत खुश हुआ कि ग़रीब भिश्ती को एक लाख रुपये मिल गये । साहब ने भिश्ती से कहा- तुझे एक लाख रुपये मिला है । भिश्ती ने समझा - साहब मजाक कर रहे हैं। उसने साहब से कहा- मुझ जैसे गरीब को एक लाख रुपया कौन दे सकता है ? साहब ने विश्वास दिलाते हुए कहा- हंसी की बात नहीं है। लो, यह एक लाख रुपये संभालो ।
इतना कहकर साहब ने एक लाख के नोट भिश्ती के सामने रख दिये । इतने रुपये मिलते देख कर भिश्ती को इतनी अधिक प्रसन्नता हुई कि वह उसे सहन नहीं कर सका और उसी समय चल बसा।
शास्त्र का कथन है कि प्रसन्नता की अधिकता से मरने वाले का आयुष्य तो लम्बा भी हो सकता था, परन्तु जैसे तेल होते हुए भी पवन के झकोरे से दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार वह भी प्रसन्नता के झपाटे में आकर मर गया । भिश्ती को अतिराग आया था, इससे वह मर गया। इस प्रकार अतिराग भी मृत्यु का कारण है।
द्वेष और क्रोध के कारण भी आयु का नाश हो जाता है। भय से भी आयु नष्ट होती है। सुनते हैं - दो मित्रों में से एक ने दूसरे से कहा- तुम रात के समय श्मशान में खूंटी गाड़ आओगे तो मैं मिठाई खिलाऊंगा। दूसरा मित्र खूंटी गाड़ने के लिए चल दिया। उसने खूंटी गाड़ भी दी, परन्तु खूंटी के साथ, अंधेरे में उसकी धोती का पल्ला भी गड़ गया। जब वह उठने लगा, तो उसका पल्ला अटका। उसने समझा मुझे भूत ने पकड़ लिया है। इसी भय के कारण वह वहीं मर गया ।
इस प्रकार आयुष्यनाश का एक कारण अध्यवसाय है। भारत में भय, शोक, मोह आदि इतना बढा हुआ है कि यहां के लोगों का आयुष्य नष्ट हो रहा है।
२५६ श्री जवाहर किरणावली