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पहले कहा जा चुका है कि जिसके पास जरा भी परिग्रह नहीं है, जो निरारंभी है वह तीन चौकड़ियों को लांघ गया है और वही पंडित है। इस प्रकार क्रिया के साथ पंडितपन का संबंध है, अगर क्रिया के साथ पंडितपन का संबंध न जोड़कर ज्ञान के साथ जोड़ा जाता तो बहुत पढ़े आदमी को, चाहे वह क्रिया से सर्वथा हीन ही होता तब भी पंडित कहना होता। और अनपढ़ क्रियावान् को पंडित न कह सकते। ऐसा करने से क्रिया का महत्व नष्ट हो जाता। अतएव क्रिया के साथ ही पण्डितपन का संबंध स्थापित किया गया है।
देव को धुतज्ञान है और साधु जो आरंभ-परिग्रह से रहित है, उसे ज्ञान अधिक नहीं है। फिर भी पण्डित देव को कहेंगे या आरंभ-परिग्रह के त्यागी साधु को? साधु को!
देव की बात ही क्या है, देवराज इन्द्र भी आरंभ परिग्रह के त्यागी को ही पण्डित कहेगा । अर्थात् यह कहेगा कि जो क्रियानिष्ठ है वही धन्य है। इस बात को समझने के कारण ही बालपण्डितपन आता है। जो इतना भी नहीं समझता और क्रिया में सर्वथाहीन है, वह एकान्त बाल है।
वैद्य स्वास्थ्य के नियमों को जानता है। वह अपनी तबीयत खराब होने पर यदि बात स्वीकार करता है कि मुझ से अमुक नियम का पालन न हो सका, तब तो उसका महत्व है, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार यदि इन्द्र से पूछो कि आरंभ-परिग्रह में डूबा हुआ मनुष्य पण्डित है या आरंभ-परिग्रह को त्यागने वाला? तो इन्द्र उत्तर देगा कि आरंभ-परिग्रह को त्यागने वाला ही पंडित है। तब तुम उससे पूछो कि तुम स्वयं आरंभ-परिग्रह को क्यों नहीं त्यागते? इन्द्र उत्तर देगा-मुझ में इतनी शक्ति नहीं। अगर इन्द्र इस प्रकार का उत्तर न दे तो उसका ज्ञान भी अज्ञान ही समझना चाहिए।
युद्ध के समय चारण तो केवल गाते ही हैं, मगर वीर पुरुष उस गायन को सुनकर अपना सिर कटवा देते हैं। सिर कटवा देने वाले ही युद्ध-वीर कहलाते हैं, गीत गाने वाले चारणों को यह विरुद नहीं मिलता। इसी प्रकार वही पुरुष राजा-महाराजा कहलाते हैं जो सदा सिर कटवाने को उद्यत रहते हैं, चारण तो चारण ही रहते हैं।
मतलब यह है कि बालपंडित की व्याख्या यह है कि जो कुछ क्रिया पाले और कुछ न पाले तथा अपनी कमजोरी को स्वीकार करके आरंभ-परिग्रह के त्यागी को धन्य माने।
- भगवती सूत्र व्याख्यान २६३