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‘पट्ठवियाइं ́ कहेंगे। तात्पर्य यह है कि गृहीत कर्म पुद्गलों का विभाग करना 'पट्ठवियाई' है ।
उदय में आने वाले नामादिक कर्मों की स्थापना 'पट्ठवियाइं' है । 'अभिनिविट्ठाइं' का अर्थ है- तीव्र फल देने वाले के रूप में परिणत करना अर्थात् जो कर्म तीव्र फल देने वाले हैं वह 'अभिनिविष्ट' कहलाते हैं । कर्म बंधने और फल देने के बीच का काल अबाधाकाल कहलाता है। उस अबाधाका की समाप्ति अर्थात् कर्म के फल देने को उदय कहते हैं। कर्म का उदय दो प्रकार से होता है - एक तो स्थिति पकने से, दूसरे उदीरणा से । ज्ञानीजन उदीरणा द्वारा कर्मों को उदय में ले आते हैं। कर्म की नियत अवधि से पहले ही तपस्या आदि के द्वारा कर्मों को फल देने के अभिमुख कर लेना उदीरणा है ।
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शास्त्रकार का कथन है कि जन्मे बालक के कर्म अच्छे होंगे तो वह बालक अच्छा होगा; कर्म बुरे होंगे तो वह बालक भी बुरा होगा। अशुभ कर्म वाला बालक कुरूप होता है, कुत्सित वर्ण वाला होता है, उसके शरीर से दुर्गंध आती है, खराब रस वाला होता है, खराब स्पर्श वाला होता है। वह अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और अमणाम (जिसका स्मरण करना भी अच्छा न लगे) होता है । उसका स्वर भी दीन, हीन, अनिष्ट, अकान्त आदि पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त होता है। कोई उसकी बात नहीं मानता। शुभ कर्मों वाला इससे सभी बातों में विपरीत शुभ होता है ।
गौतम स्वामी बोले- भगवन् ! ऐसा ही है, ऐसा ही है,! यह कह कर वे संयम तप से स्वात्मा को भावित करते हुए विचरने लगे ।
इति प्रथम
शतक का सप्तम उद्देशक समाप्त ।
भगवती सूत्र व्याख्यान २४७