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के घर जाने वाले मित्र ने विचार किया-ओह! मैं कितना अभागा हूँ? मेरा मित्र धर्मस्थानक में पहुंच कर आत्मशोधक क्रियाएं कर रहा होगा या संतों के श्रीमुख से उपदेश सुन रहा होगा और मैं इस पापस्थानक में आकर पाप उपार्जन कर रहा हूं।
इस प्रकार भावना की विशेषता के कारण कर्म के फल में विशेषता आ जाती है अर्थात् अशुभ कर्म शुभ रूप में और शुभ कर्म अशुभ रूप में परिवर्तित हो जाता है।
___शास्त्र के अनुसार कर्मों का फल भली भांति समझ लेने से बेड़ा पार हो जाता है। यों तो वेश्या के घर कभी कोई ही शुद्ध आशय वाला जाता होगा, क्योंकि वेश्या की संगति नीच संगति है। इसी प्रकार साधुओं के यहां पाप भावना वाला भी कोई-कोई ही होता है; साधारणतया साधुओं की संगति उत्तम ही है।
ऊपर बद्ध आदि के भेद से कर्म की चार अवस्थाएं बतलाई गई हैं। शास्त्र कहते हैं कि आत्मा अपने साथ पूर्वजन्म के कर्म लेकर आया है। एक के ऊपर दूसरी और दूसरी पर तीसरी सूई रख दी जाय तो जरा-सा धक्का लगते ही बिखर जाती है। अगर उन्हें धागे से बांध दिया जाय तो कुछ मेहनत से वह खुलेगी। अगर वह लोहे के तार से बंधी हों तो किसी शस्त्र का उपयोग करने पर ही वह खुलेंगी। लेकिन किसी ने उन्हें गर्म करके घन से कूट दिया हो तो वे किसी भी प्रकार नहीं खुल सकतीं। उनका नाम रूप भी बदल जायगा। वे सूई के रूप में तभी हो सकेगी, जब फिर से उनका निर्माण किया जाय। इसी प्रकार कर्म चार प्रकार से बंधते हैं। उनमें से तीन प्रकार से बंधे कर्म तो किसी सहायता से नष्ट किये जा सकते हैं परन्तु चौथे प्रकार के कर्म भोगे बिना नहीं छूट सकते। ऐसे कर्म निकाचित कर्म कहलाते हैं। निकाचित कर्म में करण का प्रयोग नहीं होता। उन्हें तोड़ने का इरादा ही नहीं होता। जिस जीव के निकाचित कर्म बंधे हैं, उसमें ऐसी शुभ भावना उत्पन्न नहीं होती। लेकिन इससे किसी को निराश होने की आवश्यकता नहीं। जो निकाचित कर्म बद्ध हो गये हैं, उन्हें भोगना ही पड़ेगा, किन्तु जो नये शुभ कर्म बंधेगे, वे निरर्थक नहीं जाएंगे।
जो कर्म बांधे जाते हैं, वे आटे-पिण्ड के समान एक रूप में मिले रहते हैं, फिर भी उनकी जो अलग-अलग व्यवस्था की जाती है, उसे 'पट्ठवियाई समझना चाहिए। उदाहरणार्थ-गति नाम कर्म के पुदगल इकट्ठे किये परन्तु एकत्र किये पुद्गलों से मनुष्य बनना अथवा पशु बनना, इस व्यवस्था को २४६ श्री जवाहर किरणावली