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प्रकार के हैं। उदाहरणार्थ माणिक इमीटेशन - नकली भी होता है और असली भी । इमीटेशन माणिक का स्वांग तो असली माणिक है । उसमें असली माणिक 1 की विशेषता नहीं है। इसी प्रकार श्रमण - महान का स्वांग (वेष ) धारण करने वाले बहुत हैं, परन्तु तथारूप के असली गुणयुक्त श्रमण-माहन सब नहीं होते । ऐसे किसी ऐरे-गैरे से अभिप्राय नहीं है। यहां श्रमण-माहन के शास्त्रोक्त गुणों से युक्त श्रमण - माहन का अर्थ लेना चाहिए । इसीलिए 'तथारूप' विशेषण' लगाया है। जिसका शत्रु-मित्र पर समभाव है, जो सतत तप में लीन रहता है, वह श्रमण कहलाता है। किसी से घृणा करने या किसी को संताप देने के लिए तप करना सुतप नहीं है; किन्तु समभाव के साथ, आत्मशुद्धि के लिए किया जाने वाला तप ही सुतप है। ऐसा सुतपस्वी ही श्रमण कहलाता है । आप कह सकते हैं कि जिसे शत्रु-मित्र पर समभाव हो गया, उसे तप करने की क्या आवश्यकता है? इसका उत्तर यह है कि समभावी को भी तप करना पड़ता है। समभाव वाले को भी निराहार रहना पड़ता है। थोड़ी देर के लिए कल्पना कीजिए कि रोटी एक है और खाने वाले दो हैं- मां और बेटा। अगर मां खाती है तो बेटा भूखा रहता है और बेटा खाता है तो मां भूखी रहती है। ऐसी परिस्थिति में समभाव वाली मां आप भूखी रहकर बच्चे को खिला देगी, क्योंकि बच्चे के और अपने प्रति उसमें समभाव है। जो माता ऐसी नहीं है, बच्चे के प्रति कपट भाव रखती है, वह माता के गौरवपूर्ण पद की अधिकारिणी नहीं हो सकती। ऐसी माता की बात निराली है ।
जैसे बच्चे के प्रति समभाव रखने वाली माता आप भूखी रहती है, उसी प्रकार समभाव रखने वाले महात्मा संसार को दुखी देखकर, अनशन करके भी संसार के दुख दूर करने का उपाय करते हैं। खुद की गर्ज के लिए अनशन करना एक बात है और अछूतों के लिए गांधीजी के समान अनशन करना दूसरी बात है ।
जिस में समभाव होगा वह सोचेगा कि भारत में छह-सात करोड़ मनुष्यों को दो बार पेट भर भोजन नहीं मिलता और हम तीसों दिन, दोनों बार भोजन करते हैं। अगर दोनों समय भोजन करने वाले बीस-पच्चीस करोड़ मनुष्य एक माह में छह दिन भूखे रह जावें तो भूखे रहने वालों को भोजन भी मिल जाएगा और हमारे समभाव की रक्षा भी हो जायगी ।
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अन्न बचाने के अभिप्राय से अनशन करना दूसरी बात है । और त्याग (दान) के लिए अनशन करना अलग बात है। शास्त्रकारों ने दान, शील, तप और भाव का क्रम बताया है। यानि जितना तप करो उतना ही दान करो, यह
भगवती सूत्र व्याख्यान २३१