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इससे आगे कहा है स्वर्ग और मोक्ष की पिपासा होती है। जैसे प्यास लगने पर पानी पीने की इच्छा होती है, इसी प्रकार धर्म सुनने पर गर्भ के बालक में स्वर्ग और मोक्ष की पिपासा होती है।
यहां भक्ति और धर्म दोनों का समावेश है। भक्ति वही सच्ची है जो धर्म को चाहे । एक भक्त ने कहा है
भक्ति एवी रे भाइ एवी, जेम तरस्या ने पाणी जेवी । एक माछली जल में रमे छे, निशदिन रहेवो तेने गमे छे । कोई पापीए बाहर काढी, मुई पडफड़ी अंग पछाड़ी ।। जाव जावतां जल ने समस्यो, एम गुरू चरणो चित्त धरयो ।। धर्म-पुण्य की पिपासा या भक्ति की पिपासा एक ही वस्तु है । कोई पूछे कि भक्ति करें? तो इसका उत्तर यह होगा कि जैसे मछली जल की भक्ति करती है, वैसे ही भक्ति करो। मछली सदा जल में ही रहती है । लेकिन क्या 1 वह कभी ऐसा सोचती है कि मुझे जल में रहते बहुत दिन हो गये, अब जल से बाहर निकलूं? नहीं। यह तो मछली से ही पूछो कि उसे निरन्तर जल में रहना कैसे अच्छा लगता है? इसी प्रकार भक्त की बात भक्त ही समझ सकता
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मछली को कोई जल से बाहर निकाल दे तो वह तड़फड़ा कर जल को ही याद करेगी। उसे कोई मखमल की गादी पर रक्खे और बढ़िया से बढ़िया भोजन दे, लेकिन उसे वह सब अच्छा नहीं लगेगा। वह जल के लिए ही तड़फड़ाएगी। जब तक उसके प्राण नहीं निकल जाएंगे, वह जल के लिए ही बेचैन रहेगी। आप भी मछली की तरह धर्म या गुरु को मानने लगो तो आपका कल्याण होगा ।
आप में धर्म की भावना तो है, किन्तु कल्याण तब होगा जब वह भावना बढ़ती जाय। धर्म की भावना में लौकिक वासना होना दुखदायी है, इसलिए वासना को मत उत्पन्न होने दो और जो पहले से विद्यमान है, उसे निकाल बाहर करो । जैसे मछली को पानी ही सुहाता है और पानी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं सुहाता, इसी प्रकार आपको धर्म ही प्रिय लगे और धर्म के सिवाय और कुछ भी प्रिय न लगे । वासना त्याग दो । भक्ति किसी प्रकार के बदले के लिए मत करो । कामना रहित होकर भक्ति करने वाले का कल्याण होता है।
भगवती सूत्र व्याख्यान २३६