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शरीर वाला नहीं पा सकता। वैक्रिय शरीर धारी ने त्रिलोकीनाथ का पद नहीं पाया, औदारिक शरीर ने ही यह पद पाया है।
आहारक शरीर विशिष्ट मुनियों को ही प्राप्त होता है किन्तु वह स्थायी नहीं रहता। चौदह पूर्वो के ज्ञाता मुनि को जब तत्त्वों के विषय में कोई जिज्ञासा होती है और केवली भगवान् पास में नहीं होते, तब मुनि अपनी लब्धि से एक प्रकाशमान पुद्गलपुंज बनाते हैं, वह आहारक शरीर कहलाता
तैजस और कार्मण शरीर अनादिकालीन हैं और सभी संसारी जीवों को होते हैं। खाये हुए आहार को पचाने और शरीर में ओज उत्पन्न करने का गुण तैजस शरीर में ही है। कर्मों का खजाना कार्मण शरीर कहलाता है। यही शरीर जन्म-जन्मान्तर का कारण है। इसी के द्वारा शुभाशुभ फल की प्राप्ति होती है। तैजस और कार्मण शरीर के साथ ही जीव गर्भ में आता है।
इसके पश्चात् गौतम स्वामी ने जो प्रश्न किया है, उसका आशय यह है कि भगवन्! माता-पिता के दिये हुए अंगों से बने शरीर का संबंध अखण्ड रहता है या कभी टूटता है? उसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया हे गौतम! जब तक यह भवधारणीय शरीर है, अर्थात् वर्तमान जन्म में शरीर जब तक रहता है तब तक माता-पिता का ही यह शरीर समझना चाहिए।
आत्मा को समझ लेना चाहिए कि जब तक यह जीवन है-शरीर है, तब तक यह माता-पिता का ही है। अगर तुझमें अभिमान नहीं है तो ऐसा ही मानता रहे। आज तू पढ़-लिखकर भी दूसरे आडम्बर में पड़ रहा है और नजदीक सत्य को भुला रहा है।
विज्ञानवेत्ता कहते हैं-बारह वर्ष में शरीर पलट जाता है। अर्थात् शरीर के सब परमाणु बदल जाते हैं। यह कथन किसी अपेक्षा से ठीक हो, तो भी शास्त्र का यह कथन सत्य ही है कि जब तक भवधारणीय शरीर है तब तक माता-पिता संबंधी ही शरीर है।
शास्त्रकार ने यह बात इसलिए स्पष्ट कर दी है कि कोई मनुष्य हृष्ट-पुष्ट हो कर या बारह वर्ष के पश्चात् ऐसा न मान ले कि अब माता-पिता संबंधी शरीर नहीं रहा।
कोई कह सकता है कि माता-पिता का दिया हुआ शरीर दुबला था। अब हम तगड़े हैं। इसलिए यह शरीर अब माता-पिता का कहां रहा? ऐसा कहने वाले का विचार भ्रमपूर्ण है। जीव ने गर्भ में माता-पिता की धातुओं का जो आहार किया था, यह शरीर उसी आहार की करामात है। इस शरीर के
- भगवती सूत्र व्याख्यान २१५