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हन्त, तिष्ठति। तत् तेनार्थेन गौतम? अस्ति जीवाश्च यावत्-तिष्ठन्ति ।
मूलार्थप्रश्न-भगवन्! जीव और पुद्गल परस्पर संबद्ध हैं? परस्पर खूब संबद्ध है? परस्पर में एक दूसरे में मिले हुए हैं? परस्पर स्नेह-चिकनाई से प्रतिबद्ध हैं? और परस्पर घट्टित होकर रहे हुए हैं।
उत्तर-हे गौतम-हां है।
प्रश्न-भगवन्! ऐसा कहने का क्या कारण है? कि यावत्-जीव और पुद्गल इस प्रकार रहे हुए हैं?
उत्तर-हे गौतम! जैसे कोई एक तालाब है वह पानी से भरा हुआ है, पानी से छलाछल भरा हुआ है, पानी से छलक रहा है, पानी से बढ़ रहा है और वह पानी भरे घड़े के समान है। उस तालाब में कोई पुरुष बड़ी, सौ छोटे छेदों वाली, नाव को डाल दे। हे गौतम! वह नाव छेदों से भरती-खूब भरती हुई, छल की हुई, पानी से बढ़ जायगी? और वह भरे घड़े के समान होगी?
'हां होगी।'
इसलिए हे गौतम! मैं कहता हूं यावत् जीव पुद्गल परस्पर घट्टित होकर रहे हुए हैं।
व्याख्यान गौतम स्वामी पूछते हैं-प्रभो! जीव शिव-स्वरूप है, परमात्मा है और पुद्गल जड़ एवं मूर्त हैं। तो भी क्या जीव और पुद्गल परस्पर संबद्ध हैं? बहुत संबद्ध है? एक दूसरे से मिले हुए हैं? चिकनाई के कारण परस्पर प्रतिबद्ध हैं? क्या वे परस्पर मिले हुए हैं?
__ जैसे काजल की कोठरी में जाने पर काजल की रेख लगती ही है, उसी प्रकार जहां जीव हैं। वहां पुद्गल भी हैं और जहां पुद्गल हैं वहां जीव भी हैं। जीव और पुद्गलों की एकत्र स्थिति होने से दोनों का एकत्र अवगाह होता है। अवगाह होने से वे स्पृष्ट होते हैं और स्पृष्ट होने से बद्ध होते हैं।
__ प्रश्न होता है अगर एकत्र अवगाह होने से जीव और पुद्गल परस्पर स्पृष्ट और बद्ध होते हैं तो क्या सिद्धों के क्षेत्र में पुद्गल नहीं होते? अगर होते हैं तो सिद्धों के साथ पुदगलों का बंध क्यों नहीं होता? इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं कि-संसार के जीवों में चिकास है, अतएव उनके साथ पुद्गलों का बंध होता है, सिद्ध जीवों में चिकास न होने के कारण उनके साथ पुद्गलों का बंध नहीं होता। १७८ श्री जवाहर किरणावली