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उत्तर-गौतम! सभी अविग्रहगति को प्राप्त हैं। अथवा बहुत से अविग्रहगति को प्राप्त हैं और कोई-कोई विग्रहगति को प्राप्त हैं। अथवा बहुत से अविग्रह गति को प्राप्त है और बहुत से विग्रह गति को प्राप्त है। इसी प्रकार सब जगह तीन-तीन भंग समझना। सिर्फ जीव (सामान्य) और एकेन्द्रिय में तीन भंग नहीं कहना।
प्रश्न-भगवन्! महान ऋद्धि वाला, महान् द्युतिवाला, महान् बलवाला, महाकीर्तिवाला महासामर्थ्यवाला मरण-काल में च्यवने वाला महेश नामक देव लज्जा के कारण, घृणा के कारण, परीषह के कारण कुछ समय तक आहार नहीं करता। फिर आहार करता है और किया हुआ आहार परिणत भी होता है, और अन्त में उस देव की आयु सर्वथा नष्ट हो जाती है, इसलिए वह देव जहां उत्पन्न होता है वहां की आयु भोगता है। तो हे भगवन्! वह आयु तिर्यंच का समझा जाय या मनुष्य का समझा जाय?
उत्तर-गौतम! उस महाऋद्धि वाले देव का यावत् मृत्यु के पश्चात् मनुष्य का आयुष्य ही समझना चाहिए।
व्याख्यान आना-जाना, गमनागमन से होता है, अतः अब गौतम स्वामी गमन-आगमन के विषय में प्रश्न करते हैं। गौतम स्वामी पूछते हैं-भगवन् ! जीव विग्रहगति वाला होता है या अविग्रहगति वाला होता है? भगवान् उत्तर देते हैं-जीव विग्रहगति वाला भी होता है और अविग्रहगति वाला भी होता है। अर्थात् जीव में दोनों प्रकार की अवस्थाएं हो सकती हैं।
विग्रह का अर्थ है-मोड़ खाना-मुड़ना। जीव जब एक शरीर छोड़ कर दूसरा नया शरीर धारण करने के लिए गति करता है, तो उसकी गति दो प्रकार की हो सकती है। कोई-एक जीव एक, दो या तीन बार मुड़कर उत्पत्ति स्थान पर पहुंचता है और कोई जीव बिना मुड़े, सीधा अपने उत्पत्तिस्थान पर पहुंच जाता है। जब उत्पत्तिस्थान पर जाने के लिए मोड़ खाना पड़ता है तब वह गति विग्रहगति कहलाती है। जब बिना मुड़े सीधा ही चला जाता है, तब उस गति को अविग्रहगति कहते हैं। जीव जब ठहरा हो, गति न कर रहा हो तब भी उसे अविग्रह वाला समझना चाहिए और जब सीधा गति कर रहा हो तब भी अविग्रहगति वाला समझना चाहिए। अविग्रहगति वाले में यहां दोनों अर्थ विवक्षित हैं, ऐसा टीकाकार कहते हैं। यद्यपि प्राचीन टीकाकार ने अविग्रहगति का अर्थ सिर्फ सीधी (बिना मोड़ वाली) गति ही लिया है, मगर ऐसा लेने से और अविग्रहगति का अर्थ ठहरना न करने से नारकी जीवों में अविग्रहगति वालों की जो बहुलता बतलाई है, वह संगत नहीं बैठ सकेगी। २०२ श्री जवाहर किरणावली