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हैं, उन भागों की शक्ति बढ़ती जाती है। होमियोपैथिक औषधों से यह बात सहज समझी जा सकती है।
हमारे सूत्रों की फिलॉसफी थोकड़ों में ही बंद रह गई। थोकड़े रट करके भी हम अपने प्रमाद के कारण उसका व्यवहार नहीं कर सके। यह बारीक ज्ञान यथोचित रूप से प्रकाश में भी नहीं लाया गया है, जबकि बाइबिल जैसे ग्रंथों का नित्य नये रूप में प्रचार हो रहा है। जिस भगवती सूत्र का यह ज्ञान है, उसका भाष्य जर्मनी में बना उससे वहां के विद्वानों ने बहुत सी बातें जानीं और बहुतों को व्यवहार में लिया। इसके विरुद्ध हमारे यहां के लोग उपेक्षा भाव धारण किये रहते हैं। जो खोजता है, वह पाकर उन्नत बनता है, नहीं खोजने वाले के घर की चीज भी उसे लाभदायक नहीं होती। अस्तु।
ऊपर कहे हुए 'सव्वेणं वा देसं पदों का आशय संग्रह के आहार से है। शरीर के अंगों में परस्पर संबंध है। कान सुनी हुई बातचीत फौरन समझ जाता है। वास्तव में, शरीर के भीतर बैठा हुआ आत्मा, इन्द्रिय रूपी खिड़कियों से सब काम करता है और उन्हीं के संग्रह से वह संग्राहक कहलाता है। आहार भी यही करता है। एक भी प्रदेश खाली रखकर आहार नहीं होता। इसीलिए कहा गया है कि सर्व से देश आश्रित आहार करता है।
__शास्त्र में दूसरी बात यह कही गई है कि जीव सर्व से सर्वाश्रित आहार करता है। अब इस कथन पर विचार करना चाहिए। सर्वप्रथम यह शंका उपस्थित होती है कि खाने पर मल-मूत्र तो होता ही है, फिर सर्व-आहार क्यों कहा है? पर शंका ठीक नहीं है। गर्भ का बालक, नाल से आहार करता है जितने पुद्गलों का आहार करता है, वे सभी पुद्गल धातुएं बन जाती हैं। इस दृष्टि से 'सव्वेणं वा सव्वं' यह कथन ठीक बैठता है।
__ शास्त्रों में जहां सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम विषयों का विशद विवेचन किया गया है,वहां स्थूल विषयों को भी नहीं छोड़ा गया है। उसमें आध्यात्मिक वर्णन के साथ नरक का वर्णन है। इसलिए शास्त्रों का वर्णन सर्वांगपूर्ण है। मगर हमारी बुद्धि बहुत संकीर्ण है। हम लोग नरक का वर्णन तो पढ़ते हैं, किन्तु मनुष्यों से घृणा करते हैं। इसी अज्ञान के कारण लोग प्रार्थना से दूर रहते हैं। प्रार्थना में मोह को त्यागने की बात कही गई है। जहां मोह है, वहां स्व-पर का भेदभाव है और जहां स्वपर का भेदभाव है वहां पक्षपात के कारण राग-द्वेष का होना अनिवार्य है। लेकिन जब तक यह भेदभाव निकल नही जाता, तब तक समस्त ज्ञान अज्ञान के तुल्य है। गीता में कहा है
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भगवती सूत्र व्याख्यान १६३