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नहीं आ सकती। किन्तु वह चित्रकार अपनी तूलिका से जब उसी रंग की लकीरें दीवाल पर बना देता है, तब उन्हें देखकर एक बच्चा भी बतला देता है कि यह अमुक जीव का चित्र है, जैसे रंग में चित्र बनाने की शक्ति विद्यमान है, किन्तु दीवाल पर चित्र बनाने से पहले लोग उसे कम ही समझ पाते हैं, उसी प्रकार शास्त्रीय ज्ञान में बहुत बड़े-बड़े मर्म छिपे हुए हैं, किन्तु जब तक कोई वैसा चित्र जनसाधारण के सामने प्रस्तुत नहीं किया जाता, तब तक उसका महत्व उनकी समझ में नहीं आता। वास्तव में ज्ञान भी रंग की भांति है। इसी कारण भगवान ने जगह-जगह उदाहरण देकर तत्वज्ञान कराया है।
जीव, अजीव का संग्राहक है अर्थात् अजीव को जीव ने पकड़ रक्खा है, यह आठवें प्रकार की लोकस्थिति है। भगवान् कहते हैं
अजीव जीवसंगहिया। जीव ने अजीवों का संग्रह कर रक्खा है। अजीव में जीव को पकड़ने की ताकत नहीं है। यह शक्ति जीव में ही है कि वह अजीव को इस रूप में लाया है। अजीव संग्रह-रूप है और जीव इन सब का संग्राहक है।
यह कितने आश्चर्य की बात है कि आत्मा संग्राहक है, मगर अपने अज्ञान के कारण वह अपने किये संग्रह का गुलाम बन रहा है! तुम संग्रह के अधीन हो रहे हो किन्तु ज्ञानी कहते हैं कि तुम रुपये के नहीं हो, जर्बदस्ती रुपये के बन रहे हो। तुम जर्बदस्ती उसके बनते जा रहे हो। मगर वह तुम्हारी इज्जत नहीं करता। आप रुपये को अपना मानते हैं, फिर उसे रखने के लिए तिजोरी की आवश्यकता पड़ती है। इसीलिए न कि वह भाग जायगा? आप को रुपये की ओर से निरन्तर भय लगा रहता है, फिर भी आप से लोभ और तृष्णा नहीं छूटते!
आप कह सकते हैं कि क्या हम लोग रुपया-पैसा रखना छोड़ दें? अपने पास की सम्पत्ति दूसरों को लुटा दें? इसका उत्तर यह है कि हम आपसे यही कहते हैं कि आप पैसे के मत बनो, किन्तु यह सोचो कि मैंने इसका संग्रह किया है, इसने मुझे संग्रहीत नहीं किया है। ऐसा समझने से बुद्धि अच्छी रहेगी। बुद्धि अच्छी रहेगी तो संगृहीत पैसे का विनियोग भी अच्छा होगा। उदाहरणार्थ-आपको एक रुपया मिला। अगर आप यह जानते हैं कि इस रुपये का संग्रह मैंने किया है और इससे कई लोगों का पोषण हो सकता है। तो आप उस रुपये का विनियोग लोगों का पालन करने में करेंगे। अगर आपने ऐसा किया तो रुपये का सद्-विनियोग कहलाया। लेकिन अगर आपने वह
१७४ श्री जवाहर किरणावली
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रावला 865
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