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जमीन पर गिर कर फूट गई। अब अगर कारीगर उसके लिए रोता-बिलखता है, तो पुतली बड़ी कहलाई या कारीगर बड़ा कहलाया? 'पुतली!'
मनुष्य अज्ञान के कारण रोता है। वह वस्तुस्थिति को नहीं पहचानता, इसी से रोता है। जरा-जरा सी बातों के लिए रोना, अज्ञानपूर्ण है और पशु से भी निकृष्ट होने का प्रमाण है। वास्तव में पौद्गलिक पदार्थों के फेर में पड़ जाने के कारण ही मनुष्य वास्तविकता से बहुत दूर जा पड़ा है। अज्ञान के ही कारण मनुष्य, मनुष्य के लिए इतना भयंकर हो पड़ा है, जितना सांप भी नहीं होता। सांप के काटने से थोड़े ही मनुष्य मरते हैं। मगर मनुष्य के काटने से प्रति वर्ष लाखों मनुष्य मरते हैं। यह विशालकाय तोपें, मशीनगनें और वायुयान आदि विनाश के दूत, क्या मनुष्य ने मनुष्य के शिकार करने के लिए ही नहीं बनाये हैं? इन सब का कारण क्या है? यही कि मनुष्य वास्तविकता भूल गया है और भौतिक पदार्थों, की ओर ही उसका पूरा लक्ष्य आकर्षित हो गया है।
शास्त्रकार कहते हैं- संग्राहक होने के कारण आत्मा बड़ा है। संग्रह किये हुए पदार्थ जड़ हैं। इसी से वे आत्मा के मुकाबले-तुलना में तुच्छ हैं। इन तुच्छ वस्तुओं के लिए आर्तध्यान करना बुद्धिमत्ता का लक्षण नहीं। भक्तों में भी यद्यपि आरती होती है, किन्तु वह सांसारिक पदार्थों के लिए नहीं है। उसके हृदय मंदिर में जब काम, क्रोध आदि बलवान् चोर घुसने लगते हैं और उन्हें रोकने में असमर्थ हो जाता है, तब भक्त में आरती उत्पन्न होती है । और वह अपने स्वामी को दीनतापूर्वक पुकारने लगता है। उस समय, पैसा, मकान, दुकान यहां तक कि शरीर नष्ट होने पर भी उसे दुःख नहीं होता। क्योंकि वह आत्मतत्व को जानता है और उसे सदैव उसी की चिन्ता लगी रहती है। आत्मतत्व के समक्ष संसार का सम्पूर्ण वैभव उसके लिए तिनके के समान है।
जैसे बाजीगर नकली बाग लगाकर उसे उड़ा देते हैं, रुपये बनाकर उन्हें लोप देता है, किन्तु इन चीजों के लिए वह रोता नहीं है, क्योंकि वह उनकी वास्तविकता को भली-भांति जानता है कि यह कैसे बनी? और इनका मूल्य क्या है? इसी प्रकार अगर सब लोग आत्मा एवं शरीर आदि पदार्थ के सम्बन्ध को और उसके महत्व को भलीभांति जान लें तो फिर रोने-बिलखने का कोई कारण ही न रहे!
अगर कोई चित्रकार भिन्न भिन्न प्रकार के रंग दिखलाकर किसी साधरण मनुष्य को यह समझाने का प्रयत्न करे कि इन रंगों में हाथी, घोड़े आदि के चित्र समाये हुए हैं तो साधारण मनुष्य की बुद्धि में यह बात कदापि
- भगवती सूत्र व्याख्यान १७३