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हे गौतम! वायु सूक्ष्म है। फिर भी वायु मनुष्य का भार वहन करती है। जैसे इसमें संदेह को अवकाश नहीं, उसी प्रकार गौतम आठ प्रकार की लोक-स्थिति में भी संदेह करने का कोई कारण नहीं है।
वस्तु का समीचीन ज्ञान निश्चय और व्यवहार-दोनों दृष्टियों से होता है। निश्चय दृष्टि में सूक्ष्म से सूक्ष्म बात का भी पता लगाया जाता है। निश्चय दृष्टि से चौदहवें गुणस्थान वाले अयोग केवली भी संसारी ही कहलाते हैं, क्योंकि उनमें संसार का कुछ अंश अब भी शेष है। जब व्यवहार दृष्टि से काम लिया जाता है तो स्थूल बात को देखकर सूक्ष्म को गौण कर दिया जाता है। उदाहरणार्थ- किसी बगीचे में आम के वृक्ष अधिक है और दूसरे प्रकार के कम हैं, तो अन्य वृक्षों के होते हुए भी व्यवहार दृष्टि से वह बगीचा आम का ही कहलाता है, क्योंकि उसमें आम्रवृक्षों की अधिकता है। यहां घनोदधि पर पृथ्वी के ठहरने की जो बात कही है, वह इसी पृथ्वी की अपेक्षा से है।
उस पृथ्वी पर रहने वाले त्रस और स्थावर जीवों पर व्याख्यान भी प्रायः अपेक्षा से है, क्योंकि सात लोकों को ही पृथ्वी कहते हैं,मगर सुमेरुपर्वत पर और आकाश पर भी प्राणी रहते हैं। अतः पृथ्वी पर त्रस-स्थावर जीव रहते हैं, इस कथन का अर्थ यह नहीं समझना चाहिये कि पृथ्वी के अतिरिक्त और कहीं वे नहीं रहते।
अब यह भी देखना है कि अजीव, जीव के आधार पर है, या जीव, अजीव के आधार पर है? जड़ को चेतन ने आधार दिया है या चेतन को जड़ ने आधार दिया है? इस संबंध में शास्त्रकार कहते हैं,-'अजीवा जीवपइट्ठिया।'
शरीर अजीव पुद्गल का संग्रह है, लेकिन इसका अधिकारी जीव है। मनुष्य ने मकान बनाया है। वह चाहे तो उसे गिरा भी सकता है। इसी प्रकार पहाड़, शरीर का ढांचा, कान, नाक आदि सब जीव के बनाये हुए हैं। यद्यपि कई लोग इन सबका कर्ता ईश्वर बतलाते हैं, मगर इसमें सत्यता नहीं है। यह बात पहले स्पष्ट की जा चुकी है और यहां उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में आत्मा स्वयं ही कर्ता है। आत्मा अनादि है और उसकी शक्ति अपरिमित है। वह अपरिमित शक्ति कर्म-संयोग से दबी हुई है, इसलिये आत्मा को उसका ज्ञान नहीं है। आत्मा अपनी शक्ति को जान ले तो वह पूर्ण है। आत्मा बाहर की ओर देखने का अभ्यासी हो रहा है। वह अपनी ओर नहीं देखता। इसके लिये एक उदाहरण लीजिये:
एक साहूकार के लड़के के संरक्षक मर गये। वह लड़का ऐश आराम में और गुंडों की सोहबत में पड़कर अपना धन खोने लगा। उसका पिता १६६ श्री जवाहर किरणावली