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शरीर में रक्त, मांस, हाड़, नस और मलमूत्र हैं। शरीर का रक्त, मांस आदि बढ़ाने के लिए खाते हो, पीते हो मगर जीवन के उच्च और प्रशस्त प्रयोजन की ओर ध्यान नहीं देते तो मनुष्यजन्म को मिट्टी में मिलाना नहीं तो और क्या है ? तुकाराम कहते हैं- जैसे भाग्यहीन पुरुष कोयले के बदले हीरा नष्ट करता है, उसी प्रकार, रे मूर्ख! तू मनुष्य जन्म को मिट्टी कर रहा है। कल्पना कीजिए, किसी के पास एक तिजोरी है । उसमें हीरा - पन्ना आदि जवाहरात भरे हैं। एक तिजोरी की बही है, जिसमें तिजोरी के भीतर की सब चीजों की सूची है। इन दोनों में महत्व किसका अधिक है - तिजोरी का अथवा बही का? आप सभी एक स्वर से कहेंगे- ' तिजोरी का' ! बही में तो तिजोरी के भीतर की चीजों के नाम हैं । बही लिखने वाले ने बुद्धिमत्ता की है कि गुप्त भेद का पता दे दिया है। उस सूची से तिजोरी की चीजें देखने में सहायता मिलेगी। मगर सूची की बही के बदले तिजोरी मत दे दो। इसी प्रकार एक ओर धर्मशास्त्र हैं और दूसरी ओर शरीर है, जिसमें आत्मा विराजमान है। अब बतलाइए कि धर्मशास्त्र बड़ा या आत्मा बड़ा ? सब शास्त्रों में आत्मा और शरीर का हिसाब बतलाया गया है। गीता के 13 अध्याय में भी कहा है
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इदं शरीरं कौन्तेय, क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः । । 1 । ।
अर्थात् - हे अर्जुन, यह शरीर क्षेत्र है और इसमें विराजने वाला आत्मा क्षेत्रज्ञ है।
इस प्रकार कहने वाली गीता शरीर में रहे हुए आत्मा की बही है । लेकिन क्या हो रहा है? लोग बही के लिए लड़ते-झगड़ते हैं और तिजोरी की चीजें जा रही हैं, उनकी ओर किसी का लक्ष्य ही नहीं है। धर्म के लिए लड़ते हैं। मगर आत्मा का पतन हो रहा है, इसकी किसी को चिन्ता नहीं। हां, शास्त्रों की उपयोगिता अवश्य है और बहुत अधिक है, मगर हमारा कर्त्तव्य यह है कि हम शास्त्र रूपी बही देखकर शरीर रूपी तिजोरी में बैठे हुए आत्मारूपी रत्न को देखें, संभालें और फिर शास्त्र रूपी बही को सही मानें।
मतलब यह है कि केवल शास्त्रों के शब्दों को ही पकड़ कर मत बैठो; किन्तु शास्त्र में जो कुछ लिखा है, वह आत्मा में है या नहीं, इसे देखो, अगर किसी आदमी के सामने उसके धर्मशास्त्र का अपमान किया जाय तो उसे बुरा लगेगा, कोई जला दे तो वह मुकदमा करेगा और कहेगा कि हमारे आत्मा की बही को जला दिया । बुरा लगना अनुचित नहीं है, लेकिन बही जलने का दुःख भगवती सूत्र व्याख्यान
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