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थे और क्या कर रहे हैं? यह अपना हित क्यों नहीं सोचते? अन्त में इन्हें परलोक जाना ही पड़ेगा, तब कौन इनका सहायक होगा?
ज्ञानियों को संसार के प्राणियों के प्रति इस प्रकार की चिन्ता रहती है। लोग ताश और शतरंज में अपना समय व्यतीत करते हैं, मगर हित की बात नहीं विचारते। अगर कोई बतलाना भी चाहता है, तो उन्हें सुनने का अवकाश नहीं है। इसी कारण संत पुरुष ऐसा सोचते हैं और आपको भी ऐसा ही सोचना चाहिए।
मैं यह नहीं कहता कि मेरे पास व्याख्यान सुनने के लिए न आने वाले लोग धार्मिक नहीं हैं। जो निरोग हैं वह दवा क्यों लें? अच्छा वैद्य तो यही चाहता है कि रोगी का रोग जल्दी दूर हो जाय और इसका अस्पताल में आना बंद हो जाय । उस समय उसे भी चिन्ता हो जाती है जब रोग सार्वत्रिक रूप से फैल जाता है और उसके पास भीड़ जमा रहती है। यही बात हमारी है। अगर आपको भी संसार के मनुष्यों की ऐसी ही चिन्ता है तो आप ऊंट वाले के समान लोगों के संबंधी बन जाइए और उसका झगड़ा मिटाने की चेष्टा कीजिए। संसार में एक से एक बढ़कर दुःखी पड़े हैं। विधवाओं और अनाथों की जिंदगी किस प्रकार खराब हो रही है, खाने को न मिलने से किस प्रकार उनका पतन हो रहा है, यह कौन देखता है? अगर कोई सहृदयी, सच्ची सेवाभावना से प्रेरित होकर इनका उद्धार और सुधार करने के लिए खड़ा हो जाय और उनकी दशा सुधारने में ही अपनी जिन्दगी का सुधार माने तो सचमुच ही उनकी भी जिंदगी सुधर जाय।
आज संसार के लोगों ने यह मान रखा है कि ईश्वरभक्त द्वारा भी अगर अन्यायी की गरदन उड़ा दी जाय तो पाप नहीं है। राजनीति भी इसका समर्थन करती है। मगर यह सच्चाई नहीं है। तलवार के जोर से थोड़ी देर के लिए अन्याय दब सकता है, लेकिन उसकी प्रतिक्रिया बडी भयानक होगी। हिंसक उपाय से एक जगह अन्याय दबाया जायगा तो वह दूसरी अनेकों जगहों पर उत्पन्न हो जायगा। देवी भागवत में शुम्भ और निशुम्भ की कथा आई है। कहा गया है कि देवी ने दोनों का वध किया था। देवी एक जगह इन्हें काटती थी तो इनके एक रक्तबिन्दु से हजारों शुम्भ और निशुम्भ उत्पन्न हो जाते थे। मेरे खयाल से यह आलंकारिक वर्णन है। इसके आधार पर हिंसा मानना भूल है। साक्षात् देवी अहिंसा है। अगर हिंसा द्वारा शान्ति चाही जायगी तो अन्त में घोर अशान्ति ही पल्ले पड़ेगी। इसके विपरीत अगर अहिंसा की तलवार को लेकर राग-द्वेष का वध करोगे तो बैर का जहर मिट जायगा। यह
। भगवती सूत्र व्याख्यान ४१