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जमा कराने से चुक जाता है, उसी प्रकार जल का कर्ज दूसरे जीवों को चुकाया जा सकता है। जल पीने में सूक्ष्म हिंसा है, स्थूल हिंसा नहीं है। जल में जीव मानकर जल पीने से पाप लगेगा, इसलिए जल में जीव ही न मानना घोर अज्ञान है। इसमें हिंसा का पाप तो टलता नहीं और मिथ्यात्व का पाप अधिक लगता है, क्योंकि सजीव को निर्जीव मानना मिथ्यात्व है। जगदीशचन्द्र बसु ने वनस्पति में भी जीव सिद्ध किये हैं, तो क्या वनस्पति खाने वाले यह कहेंगे कि हम वनस्पति में जीव न मान कर वनस्पति खाते थे, जो पाप से बचे हुए थे। अब जगदीशचन्द्र बसु ने जीव बतलाकर ऐसी मूर्खता की कि हमें पाप लगने लगा। कोई भी समझदार आदमी ऐसा नहीं कहेगा। वह कहेगा-वनस्पति खाये बिना मेरा काम नहीं चलता इसलिए खाता हूं, मगर इसका बदला दूसरी तरह से चुका दूंगा।
भगवती सूत्र व्याख्यान ७६