________________
प्रथम उद्देशक के प्रारंभ में की जा चुकी है। वही व्याख्या यहां भी समझ लेना चाहिए।
रोह अनगार के मन में यह प्रश्न उत्पन्न हुआ कि पहले लोक है या पहले अलोक है? अथवा इन दोनों में कौन पहले और कौन पीछे है? इस प्रकार का प्रश्न उत्पन्न होने पर रोह अपने स्थान से उठे और भगवान् महावीर के सन्निकट उपस्थित हुए। उन्होंने तीन बार भगवान् को प्रदक्षिणा की और नमस्कार किया।
वन्दना- नमस्कार करके रोह अनगार ने भगवान् से पूछा- भगवन्! मैंने आप से लोक और अलोक दो पदार्थ सुने हैं परंतु मैं यह जानना चाहता हूं कि पहले लोक है या अलोक? पहले लोक बना है या अलोक बना है?
जैसे 'आत्मा' शब्द असमस्त (समास-रहित) है और 'अनात्मा' शब्द उसके निषेध से बना है, इसी प्रकार 'लोक' भी असमस्त पद है और 'अलोक' उसके निषेध से बना है। समास वाले पद के वाच्य पदार्थ में संदेह भी हो सकता है, परन्तु असमस्त पद का वाच्य पदार्थ अवश्य होता है। उसमें संदेह के लिए अवकाश नहीं है, ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि समास-रहित कोई पद हो, मगर उसका अर्थ न हो।
अगर लोक और अलोक में से किसी भी एक को पहले बना हुआ माना जाय तो दोनों की आदि होगी। तो क्या यह दोनों सादि हैं? इन्हें किसी ने बनाया है।
रोह के प्रश्न के उत्तर में भगवान ने फर्माया- हे रोह! लोक और अलोक पहले भी हैं और पश्चात् भी हैं। इन दोनों में पहले-पीछे का क्रम नहीं है। जैसे गाय के दो सींगो में और मनुष्य के दो नेत्रों में पहले-पीछे का कोई क्रम नहीं है, उसी प्रकार लोक और अलोक में भी पूर्व- पश्चात् की कल्पना नहीं हो सकती। यह दोनों शाश्वत हैं। किसी प्रकार का क्रम संभव होता; मगर यह बने नहीं है। अतएव इनमें आनुवर्ती (क्रम) नहीं है। जैसे 'दाहिनी आंख' कहने पर बाई आंख भी अपने स्थान पर ही रहती है, मगर दो शब्दों का उच्चारण एक साथ नहीं हो सकता, इसलिये किसी एक को पहले और दूसरी को पश्चात कहते हैं, परन्तु आंखों में वस्तुतः आगे-पीछे का कोई भेद नहीं है। यही बात लोक और अलोक के विषय में भी समझनी चाहिये।
यहां यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि रोह मुनि ने पहले लोक-अलोक के विषय में ही क्यों प्रश्न किया है? असल में क्षेत्र आधार है। आत्मा का संबंध क्षेत्र से है। कोई कहीं भी जाए, पहले यही पूछा जायेगा १४४ श्री जवाहर किरणावली