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कि- आप कहां रहते हैं? इसके पश्चात् अन्य बातें पूछी जाती हैं। तदनुसार रोह ने भी सर्वप्रथम लोक अलोक के विषय में प्रश्न किया है।
लोक और अलोक में यही अन्तर है कि लोक में पंचास्तिकाय है और अलोक में केवल आकाश ही है। लोक में जितनी भी वस्तुएं हैं, जीव और अजीव में सब का समावेश हो जाता है।
तत्पश्चात् आर्य रोह पूछते हैं-भगवन्! पहले जीव हैं या अजीव?
किसी-किसी का कथन है कि जीव, जड़ से उत्पन्न हुआ है। पंच भूतों के मेल से जीव उत्पन्न हो जाता है। लेकिन ऐसा मानने से जीव की आदि ठहरती है और यह भी मानना पड़ता है कि पहले जड़ और बाद में जीव
बना है।
किसी का मन्तव्य यह है कि- ब्रह्म के अतिरिक्त दूसरी कोई भी सत्ता नहीं है। सारे जगत में एक ही वस्तु है- ब्रह्म, और कुछ भी नहीं है“एकं ब्रह्म द्वितीयों नास्ति।
इस प्रकार जीव और अजीव के विषय में नाना मतभेद होने के कारण रोह ने प्रश्न किया- भगवन्! इस विषय में आप क्या कहते हैं? रोह के प्रश्न का भगवान् ने उत्तर दिया- हे रोह! ऐसा प्रश्न ही नहीं हो सकता, क्योंकि जीव और अजीव-दोनों ही शाश्वत भाव हैं। लोक अलोक के विषय में जो उत्तर दिया गया है, वही, उत्तर यहां समझ लेना चाहिये।
__ भगवान् कहते हैं- मैं अपने ज्ञान में प्रत्यक्ष देख रहा हूं, मगर तुम्हारी श्रद्धा भी उस तत्व को आंशिक रूप में ग्रहण कर सके, इस अभिप्राय से कुछ और समझाता हूं।
यह मान लिया जाय कि जड़ पहले और चेतन बाद में हुआ, तो चेतन आत्मा बनावटी और नाशवान् ठहरेगा। अगर कोई जीव को बनावटी और नाशवान् भी कहे तो यह कथन मिथ्या है जीव उत्पत्ति तर्क से संगत नहीं है। युक्ति इसे सिद्ध नहीं कर सकती है।
प्रत्येक प्राणी को 'अहं प्रत्ययं अर्थात् 'मैं ऐसा ज्ञान होता है; यह बात स्वतः सिद्ध है। अब प्रश्न यह है कि 'मैं कहने वाला और 'मैं को जानने वाला कौन है? लोक में यह भी कहा जाता है- 'मेरा शरीर ।' अर्थात् मैं शरीर नहीं मेरा शरीर।' अर्थात् मैं शरीर नहीं मेरा शरीर। यहां शरीर को अपना कहने वाला कौन है? क्या यह भी संभव है कि शरीर तो हो मगर शरीर को अपना बतलाने वाला कोई न हो? 'मेरा शरीर' यह कथन शरीर और शरीरी को अलग-अलग बतला रहा है। जैसे 'मेरा घर' इस कथन से घर अलग और
- भगवती सूत्र व्याख्यान १४५