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कमलों का चलन नहीं रहा, होल्डरों का चलन हो गया है। होल्डर कारीगर ने बनाया है, मगर उसका लोहा किसने बनाया है? एक कहता है-लोहा ईश्वर ने बनाया, मगर वास्तव में लोहा बनाने वाला भी आत्मा है। लोहा खदान में था। खदान में पृथ्वीकाय के जीव थे! उन्होंने लोहा बनाया और वह लोहा कारीगर के हाथ में गया। इस प्रकार लोहा भी आत्मा ने ही बनाया है।
जैन धर्म पृथ्वी में भी आत्मा मानता है। पृथ्वी स्वयं आत्मा नहीं है, किन्तु पृथ्वी रूप शरीर धारण करने वाला जीव-आत्मा है। वह आत्मा स्वतंत्र रूप से पुद्गलों को अपने में खींचता है। जैसे आत्मा ही दूध पीता है और आत्मा ही उसे खल-भाग एवं रस भाग आदि में परिणत करता है, फिर भी कई लोग यह काम भी ईश्वर का बतलाते हैं, इसी प्रकार लोहा भी आत्मा ने बनाया है, किन्तु लोग उसे ईश्वर का बनाया हुआ मानते हैं। ईश्वर के ऊपर किसी प्रकार की जवाबदारी डालना, अपनी जवाबदारी से छूटने का प्रयत्न करना है। लेकिन यह स्मरण रखना चाहिए कि ईश्वर पर एक बात का आरोप करने से अनेक आरोप करने पड़ेंगे।
कई लोगों का ऐसा कथन है कि जीव कर्म करने में तो स्वतंत्र है, मगर फल ईश्वर देता है। यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अगर एक आदमी ने चोरी की या दुराचार किया तो उस ने यह नया कर्म किया है या पुराने कर्म का फल भोगा है? अगर यह माना जाय कि नया कर्म किया है तो जिसका धन या शील गया, उसके लिए तो प्राचीन कर्म का फल भोग ही हुआ? अगर ऐसा न माना जाय तो प्राचीन कर्म का फल ही नहीं होगा। अगर यह कहा जाय कि चोरी या व्यभिचार करने का कार्य ईश्वर ने प्राचीन कर्म के फल का भोग कराने के लिए करवाया है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि ईश्वर ने चोरी या व्यभिचार का कार्य करवाया है। गीता में कहा है
न कर्तृत्वं न कर्माणि, न लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं, स्वभावस्तु प्रवर्तते।। वास्तव में ईश्वर कर्ता नहीं है और न कर्म का फल देने वाला है। यह सब वस्तु-स्वभाव से होता है।
इस प्रकार न जड़ से चेतन की और न चेतन से जड़ की उत्पत्ति होती है। इसी कारण रोह अनगार ने भगवान् से प्रश्न किया- हे प्रभो! आपके ज्ञान में क्या प्रतिभासित हो रहा है?
इस विषय का विस्तृत विवेचन न्यायग्रन्थों में किया गया है। शास्त्रकार उसका मूल तत्त्व ही प्रकट करते हैं। १४८ श्री जवाहर किरणावली