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कभी अन्त नहीं आ सकता है। इसी प्रकार जीव संसार से ही मुक्त होते हैं, मगर अनन्त होने के कारण संसार कभी जीव-शून्य नहीं हो सकता।
यद्यपि रोह अनगार ने पहले भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक का प्रश्न किया है और बाद में सिद्धि तथा संसार का तथापि पहले सिद्धि और संसार संबंधी प्रश्नोत्तर का व्याख्यान किया गया है, जिससे भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक का प्रश्नोत्तर सरलता से समझा जा सके।
रोह अनगार ने प्रश्न किया-भगवन! पहले भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक हैं?
जिसमें जो कार्य करने की क्षमता है- योग्यता है, वह उस कार्य के लिए भव्य कहलाता है। उदाहरणार्थ कुंभार मिट्टी से घड़ा बनाता है, परन्तु जिस मिट्टी से घट बन सकता है वही मिट्टी घट के लिए भव्य है, और जिसमें घट बनने की शक्ति नहीं है, वह घट के लिए अभव्य है।
किस आदमी को अग्नि की आवश्यकता है। वह सोचता है- लकड़ी में अग्नि है। मगर कोई लकड़ी आग के लिए भव्य है, कोई अभव्य है। अर्थात् जिस लकड़ी के घिसने से आग उत्पन्न होती है, वह आग के लिए भव्य है, और जिसे घिसने पर भी आग नहीं उत्पन्न होती वह लकड़ी आग के लिए अभव्य है। अरणि की लकड़ी घिसने से अग्नि उत्पन्न होती है, वह अग्नि के लिहाज से भव्य है।
आम आदि की लकड़ी इस दृष्टि से अभव्य है।
मतलब यह है कि जिस वस्तु में जिस कार्य की सिद्धि की क्षमता है, वह उस कार्य के लिए भव्य है। अभव्य इससे विपरीत है।
यहां सिद्धि की दृष्टि से भव्य-अभव्य का विचार किया गया है।
मगर सिद्धि का अर्थ इस जगह अणिमा, महिमा, गरिमा, आदि आठ सिद्धियां नहीं समझना चाहिए, किन्तु समस्त परभावों से अतीत होकर, समस्त उपाधियों से रहित होकर तथा विगतदेह होकर आत्मा जो अवस्था प्राप्त करता है, वह अवस्थासिद्धि कहलाती है। जिस अवस्था में आत्मा को पुनः पुनः जन्म-मरण करना पड़ता है, उसे असिद्धि 'संसार' कहते हैं।
रोह ने भगवान् से सिद्धि और असिद्धि के संबंध में प्रश्न किया- इन दोनों में से पहले कौन है और पीछे कौन है? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् फर्माते हैं- यहां पहले पीछे का क्रम नहीं है, दोनों साथ हैं, दोनों शाश्वत हैं। जैसे शरीर में मस्तक और पैर में से कोई पहले-पीछे नहीं साथ ही बने हैं, उसी प्रकार सिद्धि और सिर पर है और संसार नीचे है। इसलिए शरीर में जैसे १५२ श्री जवाहर किरणावली -
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