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धम्मस्स विणओ मूलं अर्थात्-धर्म का मूल विनय है।
अन्य लोग कर्मनाश का कारण भक्ति मानते हैं, परन्तु जैन धर्म विनय को कर्मनाश का कारण कहता है।
विनीत-नम्र होना प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक है। कई लोग सोचते हैं-नम्र रहने पर कद्र नहीं होगी, मगर यह भ्रम है। स्वार्थ-साधन के लिए दीनता या नम्रता दिखलाना दूसरी बात है, मगर निःस्वार्थ भाव से नम्र होने पर कदापि बेकद्री नहीं हो सकती।
रोह अनगार के क्रोध, मान, माया ओर लोभ रूप कषाय पतले पड़ गये थे अगर उनके क्रोध आदि का सर्वथा क्षय हो गया होता, तब तो वे भगवान् से प्रश्न ही न करते अर्थात् वे स्वयं सर्वज्ञ, सर्वदर्शी परमात्मा बन जाते। अतः क्रोधादि उनमें विद्यमान तो थे, मगर उसे वे सफल नहीं होने देते थे; और वह बहुत हल्का पड़ गया था।
रोह अनगार ने 'अहं प्रकृति पर भी विजय प्राप्त कर ली थी। संसार में जहां देखो, अहंकार का झगड़ा चल रहा है। अहंकार ने हाहाकार मचा रक्खा है। न जाने कितना संहार अहंकार के कारण हो रहा है! लेकिन हे जीव! जिसके लिये 'मैं' कहता हैं, उससे क्यों नहीं पूछता कि वह तेरे 'मैं' का समर्थन करता है या नहीं? अगर वह समर्थन नहीं करता तो तू उसके लिये क्यों 'मैं-मैं कर रहा है? तू घड़ी को अपनी कहता है, मगर घड़ी से तो पूछ देख कि वह तुझे अपना कहती है या नहीं? अगर वह नहीं कहती तो तू क्यों उसे अपनी मान बैठा है! इस प्रकार के विचार से अहंकार और ममकार छूट जाते हैं और आत्मा में अपूर्व शान्ति का प्रादुर्भाव होता है।
रोह अनगार ने अहंकार को जीत लिया था। गुरु का उपदेश पाकर उन्होंने अहंकार को गला दिया था। वास्तव में सच्चा साधु वही है, जो अहंकार को जीत ले !
रोह अनगार प्रकृति से ही अलीन थे। अलीन का अर्थ है गुरुसमाश्रित। अर्थात गुरु का उन्होंने पूर्णरूपेण आश्रय लिया था। वे गुरु पर निर्भर थे। सब प्रकार से गुरु की सेवा भी करते थे।
सब धर्मशास्त्र कहते हैं कि महात्माओं की सेवा से ही तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती है। पुस्तकें उस ज्ञान की झाँकी भी नहीं दिखा सकतीं। ऊपर गीता का उदाहरण देकर भी यही बात बतलाई गई है।
कई लोगों को शंका-समाधान करने में झिझक होती है और कई-एक को पूछने की इच्छा ही नहीं होती। अनेक लोग समझते हैं कि हमने १४२ श्री जवाहर किरणावली