________________
वह राजा प्रकृति का भद्र था। एक दिन वह जंगल की रचना देखने के लिए जंगल की ओर निकल पड़ा। जंगल की स्वच्छ वायु और जंगली पशु-पक्षियों की रचना देखकर वह विचारने लगा-हम सद्गुण प्राप्त करने के लिए पुस्तकों के साथ माथापच्ची करते हैं, मगर सद्गुण इस जंगल में स्वतः उत्पन्न हो सकते हैं, वह पुस्तकों में कहां रक्खे हैं!
राजा जंगल में भ्रमण करता-करता दोपहर की धूप से घबड़ा उठा उसने जंगल में विश्राम करने का विचार किया। वह एक बेर के झाड़ के नीचे विश्राम करने लगा। यद्यपि बेर के झाड़ में कांटे थे, मगर राजा ने उसकी छाया सुन्दर देखकर वहीं विश्राम किया।
राजा बेर के पेड़ के नीचे सो गया। राजा ने अपने साथी पहरेदारों को दूर रहने के लिए कहा, जिससे निद्रा में व्याघात न हो, पहरेदारों की स्वतंत्रता में बाधा न पड़े और शुद्ध हवा मिल सके। जब राजा सो रहा था तो एक ग्रामीण पथिक उस ओर से निकला। पथिक इतना भूखा था कि उसका पेट पाताल को जा रहा था। वह भूख मिटाने का उपाय सोच रहा था कि उसे बेर का पेड़ नजर आया। पथिक ने सोचा-बेर के फलों से ही भूख कुछ शान्त हो जायगी।
पथिक ने देखा-पेड़ फलों से लदा है। उसने सोचा पेड़ के पास पहुंचने पर फल गिराऊंगा तो कुछ देर लगेगी ही, इसलिए यहीं से लकड़ी फैंक दूं। उसने पेड़ में जोर से लकड़ी मारी बहुत से फल नीचे आकर गिरे। वृक्ष से फल तो गिर गये मगर लकड़ी नीचे गिर कर राजा को लगी। बेर और लकड़ी लगने से राजा की नींद खुल गई। राजा उठ बैठा।
पथिक अभी तक वृक्ष के ऊपरी भाग को ही देख रहा था। फल गिरने के समय उसने देखा कि मेरी लकड़ी राजा को लग गई है। पथिक भय के मारे कांपने लगा। उसने कहा-महाराज, क्षमा कीजिए। मैंने आपको नहीं, वृक्ष को लकड़ी मारी थी। भूल से आपको भी लग गई। मैं भूख से व्याकुल था। इसी कारण बेर खाना चाहता था। आपके ऊपर मेरी निगाह नहीं पड़ी।
इतने में पुलिस आ धमकी। वे बात को घटाने क्यों लगे? खैरख्वाही जताने के लिए उन्होंने बवंडर खड़ा कर दिया। वे उसे पकड़ने के लिए झपटे। पथिक भागा। राजा ने कहा इसे मारो मत। पकड़ कर मेरे पास ले आओ। राजा ने पथिक से भी कहा-भाई, तू डर मत। तू मेरा परिचित है। आखिर पथिक विवश था। भाग कर भी पकड़ में आता ही। यह सोचकर उसने कहा-अच्छा, चलो, मैं राजा के पास चलता हूं। १४० श्री जवाहर किरणावली.