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का कारण है । पर इस अभिमान से तत्त्वज्ञान की प्राप्ति नहीं होती । तत्त्वज्ञान प्राप्त करते समय अभिमान को जूतों की तरह दूर रख देना चाहिए | अभिमान का त्याग करने पर आत्मा में एक विशेष प्रकार की जागृति उत्पन्न होती है । आत्मा विचारने लगता है - हे आत्मन्! अब कड़ा रहकर तू कब तक ठोकरें खाता फिरेगा? नम्र बन कर ज्ञान प्राप्त कर ले। इसी में तेरा कल्याण है । रोह अनगार ने नम्र बन कर ज्ञान प्राप्त किया था । यह बात प्रकट करने के ही लिए शास्त्र में रोह अनगार का परिचय दिया गया है। सबसे पहले रोह अनगार के स्वाभाविक गुणों का वर्णन किया गया है। वे प्रकृति से ही भद्र थे ।
आजकल तो भद्र या भद्रिक का प्रयोग मूर्ख के अर्थ में होने लगा है। मगर मूर्ख को भद्र या भद्रिक कहना 'भद्र' शब्द का अपमान करना है। भद्रिक पद बड़े-बड़े महात्माओं के लिए प्रयुक्त किया गया है उसी शब्द को मूर्ख के लिए व्यवहार करना मूर्खतापूर्ण ही है ।
'भज् - कल्याणे' धातु से 'भद्र' शब्द बना है । इसका अर्थ है-कल्याणकारी । अच्छे वस्त्र पहनने वाला और ठाठ से रहने वाला पुरुष ही कल्याणकारी नहीं है, वरन् जिसमें स्वभावतः परोपकार और दूसरों का कल्याण करने का गुण है, वही वास्तव में भद्रिक कहला सकता है।
कहा जा सकता है कि प्रकृति से इस प्रकार का गुण कैसे आ जाता है? अगर प्रकृति पर ध्यान दिया जाय तो मालूम हो जायगा कि वृक्ष अपना सारा शरीर परोपकार में क्यों लगा देता है? वृक्ष को अजात शत्रु कहते हैं । उसने अपना अंग-अंग लकड़ी, पत्ते, फल, फूल आदि सब कुछ परोपकार के लिए ही अर्पित कर दिया है। वह छाया देता है, फल देता है, ज्यादा कुछ नहीं तो आक्सीजन वायु तो देता ही है, जो मनुष्यों के जीवन का मूल है। जिस प्रकार वृक्ष के साथ बुराई करने पर भी वृक्ष भलाई ही करता है, अर्थात् पत्थर मारने पर भी फल-फूल या पत्ता ही देता है, इसी प्रकार जो मनुष्य स्वभाव भद्र हैं, वे भी बुराई करने वाले के साथ भलाई ही करते हैं। इसके लिए एक उदाहरण दिया जाता है :
एक राजा प्रकृति का भद्र था । उसका स्वभाव ही यह था कि वह प्रत्येक दशा में दूसरे का कल्याण ही करता था । कल्याण करने की भावना रखने वाले के पास दूसरे के कल्याण की वस्तुएं उसी प्रकार रहा करती है, जिस प्रकार शिकारी अपनी बंदूक भरी हुई रखता है कि कोई शिकार मिले और मारूं ।
भगवती सूत्र व्याख्यान १३६