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उत्तर - हे रोह ! यह भी उसी प्रकार जानना, यावत् - सर्वाद्धा । इस प्रकार एक-एक का संयोग करते हुए और जो-जो निचला हो उसे छोड़ते हुए पूर्ववत् समझना । यावत् - अतीत और अनागत काल और फिर सर्वाद्वा, यावत् - हे रोह ! इनमें कोई क्रम नहीं है।
भगवन् यह इसी प्रकार है, हे भगवन्! यह इसी प्रकार है ! ऐसा कहकर यावत् विचरते हैं ।
व्याख्यान
भगवान् महावीर के एक शिष्य रोह नामक अनगार थे। संभव है, आधुनिक रुचि 'रोह' नाम पसंद न करे। मगर प्राचीन काल में नाम पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता था, जितना काम पर। आज की अवस्था इससे विपरीत है। अब काम की ओर नहीं, नाम की ओर ही ध्यान दिया जाता है। मेरे कथन का आशय यह न समझा जाय कि मैं सुन्दर और सार्थक नाम रखने का विरोध करता हूं। मेरा अभिप्राय केवल इतना ही है कि नाम के बजाय काम (कार्य) को प्रधानता मिलनी चाहिए और इसी आधार पर मनुष्य को प्रतिष्ठा अप्रतिष्ठा मिलनी चाहिए। रोह ! कितना सीधा-सादा, संक्षिप्त नाम है! इस संक्षिप्त नाम के साथ उन्होंने कितनी विशेषताएं प्राप्त की थी ! यह इन्द्रपूजित महात्मा थे। शास्त्रकार ने इनका जो परिचय दिया है, वह आगे आएगा। उन्होंने भगवान् से कुछ प्रश्न किये हैं और भगवान ने उनका उत्तर दिया है ।
यहां यह आशंका की जा सकती है कि हमें प्रश्नोंत्तर सुनने से और किसी दूसरे की गुणावली श्रवण करने से क्या लाभ है? मगर गीता में कहा
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तद् विद्धि प्रणिपातेन, परिप्रश्नेन सेवया । उपदेश्यंति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः । । गीता - 4 / 34 अर्थात्-उस ज्ञान को पोथी से न चाहो, किन्तु नम्र भाव से आत्मा को झुकाकर गुरु से पूछकर उनकी सेवा करके प्राप्त करो ।
आप गाय से दूध चाहते हैं, मगर क्या उसकी सेवा करके चाहते हैं? नहीं, यह घोर कृतघ्नता है। इसी प्रकार जो ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं मगर उसके बदले ज्ञानदाता की सेवा नहीं करना चाहते, उनका यह भाव स्वार्थपूर्ण है। ज्ञान अमृत है। गीता के अनुसार ज्ञान देने वाले को झुक कर और नमस्कार करके ज्ञान प्राप्त करना चाहिए ।
आजकल बहुत-से लोग अगर नमस्कार भी करेंगे तो अपनी अकड़ चली गई मानेंगे। उनकी समझ ऐसी है कि उनकी अकड़ ही उनकी प्रशंसा १३८ श्री जवाहर किरणावली