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प्रश्न-पूर्व भगवन् लोकान्तः पश्चात् सर्वाद्धा!
उत्तर-यथा लोकान्तेन संयुक्तानि सर्वाणि स्थानानि एतानि, एवं लोकान्तेनापि संयोजयितव्यानि सर्वाणि।
प्रश्न-पूर्व भगवन्! सप्तमं अवकाशान्तरम्, पश्चात् सप्तमस्तनुवतः?
उत्तर-एवं सप्तमम् अवकाशान्तरम् सर्वेः समं संयोजयितव्यम् यावत् सर्वाद्धा।
प्रश्न-पूर्व भगवन्! सप्तमस्तनुवातः, पश्चात् सप्तमो घनवातः?
उत्तर-एवमपि तथैव ज्ञातव्यम्, यावत् सर्वाद्धा। एवं उपरितनम् ऐककेन सयोजयता यो योऽधस्तनः तं तं छर्दयता ज्ञातव्यम् यावत्अतीत-अनागताद्दा, यावत्-अनानुपूर्वी एषा रोह! तदेवं भगवन्! तदेवं भगवन्! इति यावत् विहरति।
शब्दार्थउस काल और उस समय, श्रमण भगवान् महावीर के शिष्य रोह नाम अनगार थे। वे स्वभाव से भद्र, स्वभाव से कोमल, स्वभाव से विनीत, स्वभाव से शान्त, अल्प क्रोध, मान, माया, लोभ वाले, अत्यन्त निरभिमानी, गुरु के समीप रहने वाले, किसी को कष्ट न पहुंचाने वाले और गुरुभक्त थे। वे रोह अनगार ऊर्ध्व जानु और नीचे झुके मुख वाले, ध्यानरूपी कोठे में प्रविष्ट, संयम
और तप से आत्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर के समीप विचरते हैं। तत्पश्चात् वे रोह अनगार जातश्रद्ध होकर यावत् भगवान् की पर्युपासना करते हुए, इस प्रकार बोले :- .
प्रश्न-भगवन्! क्या पहले लोक है? और पश्चात् अलोक? या पहले अलोक और फिर लोक?
उत्तर-रोह! लोक और अलोक, पहले भी हैं और पीछे भी हैं। यह दोनों ही शाश्वत भाव हैं। हे रोह! इन दोनों में यह पहला और यह पिछला ऐसा क्रम नहीं है।
प्रश्न-भगवन्! जीव पहले और अजीव पीछे हैं? या पहले अजीव और फिर जीव हैं ?
. उत्तर-हे रोह! जैसा लोक और अलोक के विषय में कहा है, वैसा ही जीव और अजीव के सम्बन्ध में समझना चाहिये। इसी प्रकार भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक, सिद्धि और असिद्धि तथा सिद्ध और संसारी के संबंध में भी जानने चाहिए। १३६ श्री जवाहर किरणावली
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