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नैरयिकों के समान एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिकों तक सब जीव कहने चाहिएं और जीवों की भांति एकेन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए । प्राणातिपात के समान मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध और यावत्-मिथ्यादर्शन शल्य तक समझना चाहिए। इसी प्रकार अठारह पाप स्थानकों के विषय में चौबीस दंडक कहने चाहिए ।
हे भगवन्! यह इसी प्रकार है! हे भगवन्! यह इसी प्रकार है! ऐसा कहकर भगवान् गौतम श्रमण भगवंत महावीर को नमस्कार करके यावत्-विचरते
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व्याख्यान
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लोक और अलोक की सीमा मिली हुई है और लोक में जीव रहते हैं। यह कहा जा चुका है। अब प्रश्न यह है कि जीव लोक में बंधा क्यों है? अनन्त शक्ति के स्वामी आत्मा को किसने बंधन में डाल रखा है? इस प्रश्न का उत्तर विविध प्रकार से दिया जाता है। किसी-किसी का मन्तव्य यह है कि ईश्वर ने जीव को संसार में बांध रक्खा है। जीव की डोरी उसी के हाथ में हैं। वह छोड़ेगा तो जीव संसार से छूटेगा, नहीं छोड़ेगा तो बंधा रहेगा । राजा-महाराजा के कारागार में बहुत से कैदी बंद रहते हैं। अगर राजा को किसी प्रकार की प्रसन्नता हुई तो वह उन्हें मुक्त कर देता है । अनेक बार तो दया से प्रेरित होकर के भी राजा उन्हें छुटकारा दे देता है। मगर क्या ईश्वर को दया नहीं आती, कि वह जीवों को इस दुःखमय संसार से मुक्त कर दे ? इसके अतिरिक्त यह भी देखना चाहिए कि ईश्वर ने जीवों को संसार में क्यों फंसा रक्खा है? अगर यह कहा जाय कि ईश्वर खिलाड़ी है और खेल करने के लिए ही उसने जीवों को संसार में बांध रक्खा है तो ऐसा खिलाड़ी ईश्वर कैसे कहला सकता है? क्रूरता और ईश्वरत्व का मेल नहीं मिलता। कई लोग कहते हैं-जैन लोग ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते, लेकिन यह बात मिथ्या है। जैनों ने ईश्वर की सत्ता स्वीकार की है, मगर उसमें ऐसे धर्म वे स्वीकार नहीं करते, जिनसे ईश्वर के ईश्वरत्व में बट्टा लगता हो अथवा उसकी महिमा मलीन होती हो । सृष्टि का कर्त्ता हर्त्ता धर्त्ता मानने से ईश्वर में अनेक दोष आते हैं अतएव जैन ईश्वर को कर्ता नहीं मानते। गीता में एक जगह कहा है -
न कर्तृत्वं न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफल संयोगं, स्वभावस्तु प्रवर्तते । गीता-5/14 ११० श्री जवाहर किरणावली