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हैं। इस क्रम को उलट देना अर्थात पांचवी, चौथी, तीसरी इस प्रकार गिनना पश्चानुपूर्वी है। और किसी प्रकार का क्रम नहीं होना अनानुपूर्वी है।
गौतम स्वामी के प्रश्न का भगवान् ने उत्तर दिया- आत्मा अनुपूर्वी से प्राणातिपात क्रिया करता है, क्रम को छोड़कर नहीं करता।
ज्ञानी पुरुषों ने इस क्रम का हिसाब किस प्रकार लगाया है, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, परन्तु आत्मा क्रम से क्रिया करता है, संभवतः यह अर्थ निकलता है। अर्थात् आत्मा मन से भी क्रिया करता है, वचन से भी क्रिया करता है और काय से भी क्रिया करता है। इस प्रकार किसी से भी क्रिया की जावे मगर अध्यवसाय के बिना क्रिया नहीं होती। अध्यवसाय के साथ चाहे मन हो, वचन हो या काय हो; लेकिन अध्यवसाय के चलने पर ही मन, वचन और काय चलते हैं। अध्यवसाय के साथ जब कोई क्रिया की ओर चलता है तो पहले पास के कर्मदलिकों को ग्रहण करता है। उदाहरणार्थ-चिकने घड़े पर पहले पास की रज लगेगी, फिर दूर की लगेगी। इसी प्रकार राग-द्वेष की चिकनाई से जीव जिन कर्मदलिकों को ग्रहण करता है, वे क्रमसे ही ग्रहीत होते हैं; बिना क्रम के नहीं आते। यह अर्थ मैंने अपनी समझ के अनुसार किया है तत्वं तु केवलीगम्यम्।
___गौतम स्वामी पूछते हैं-भगवन्! जीव जो प्राणातिपात क्रिया करता है, वह क्रिया अनुक्रम से की गई है, ऐसा कहा जा सकता है? इसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया-हां, गौतम! कहा जा सकता है।
यह प्राणातिपात क्रिया का समुच्चय विचार हुआ। लेकिन भगवान् के यहां एक का विचार हो और एक का न हो, यह नहीं हो सकता। पूर्ण पुरुष के समक्ष कसी भी प्रकार की अपूर्णता नहीं ठहर सकती। सर्वज्ञ के सिद्धान्तों में सभी का उचित विचार किया जाता है।
फिर गौतम स्वामी पूछते हैं-भगवन्! नरक के जीव प्राणातिपात क्रिया करते हैं ?
भगवान् ने फरमाया-गौतम ! हां, करते हैं। शेष सब प्रश्नोत्तर पूर्वोक्त सामान्य जीव के कथन के समान ही समझना चाहिएं, मगर नारकी जीवों के सम्बन्ध में छह दिशाओं का ही स्पर्श करना चाहिए। त्रस-नाड़ी में होने के कारण आलोक के अन्तर का व्याघात यहां नहीं होता।
___एकेन्द्रिय के पांच दण्डकों को छोड़कर शेष सब दण्डकों के सम्बन्ध में नारकियों के समान ही कथन समझना चाहिए। एकेन्द्रिय में समुच्चय जीव की तरह छह दिशाओं और तीन दिशाओं का स्पर्श कहा गया है। एकेन्द्रिय १२४ श्री जवाहर किरणावली -