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से, भंग से, मदिरा से या मिठाई से प्रेम होता है। यह प्रेम प्रेम नहीं, राग है, क्योंकि इसमें अभिष्वंग है ।
जिसमें माया और लोभ का भेद अलग-अलग मालूम न हो, पर शक्कर एवं दही, या दूध और मिश्री की तरह दोनों एकमेक हो रहे हों, और इस कारण एक तीसरा ही रूप उत्पन्न हो गया हो, इसे संसार में प्रेम कहते हैं। यह प्रेम-'अट्ठमिज्जा पेमाणुरागरत्ता' या 'धम्मपेमाणुरागस्त्ता' के समान प्रेम नहीं है, वरन् राग ही है ।
जिसमें क्रोध और मान का अलग-अलग भेद न किया जा सके, जिसमें दोनों का ही समावेश हो जाए, वह द्वेष होने पर नफरत होती है। यह नफरत क्रोध से हुई है या मान से, यह नहीं जाना जा सकता। अतएव यह द्वेष कहलाता है ।
मोहनीय कर्म के उदय से चित्त में जो उद्वेग होता है, उसे अरति समझना चाहिए और मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न विषयानुराग को रति समझना चाहिए ।
कपटयुक्त झूठ बोलना माया मृषावाद कहलाता है। झूठ दो प्रकार का होता है । एक को काला झूठ और दूसरे को सफेद झूठ कह सकते हैं। झूठ को सब लोग पहचान लेते हैं, मगर सफेद झूठ को पहचानना कठिन होता है। सफेद झूठ को काम में लाने वाले लोग ऊपर से ऐसी पालिसी प्रकट करते हैं कि वह झूठ भी सत्य प्रतीत होने लगता है। आज की विद्या की यही तारीफ है कि उसे पढ़ने वाले लोग सफेद झूठ बोलने में चतुर हो जाते हैं। लेकिन शास्त्र ऐसे किसी भी झूठ को प्रश्रय नहीं देता ।
झूठ तो मृषावाद रूप ही है, लेकिन माया मृषावाद कपटयुक्त झूठ है। दार्शनिक भेद डालकर मारामारी फैलाने का काम झूठ बोलने वालों ने नहीं, वरन् माया-मृषावादियों ने सफेद झूठ बोलने वालों ने किया है । मायामृषावादी लोग अपने असत्य पर ऐसा रंग चढ़ाते हैं कि साधारण जनता उनके चक्कर में पड़ जाती है। चाहे इस प्रकार की बनावट से लोगों को फांस लिया जाय, मगर शास्त्र स्पष्ट कहता है कि यह झूठ भी झूठ है ।
कदाचित् आप कहें कि ऐसा किये बिना काम कैसे चल सकता है? लेकिन इसके साथ यह भी विचार कीजिए कि अगर संसार के सभी लोग इसी प्रकार झूठ बोलने लगें - सभी एक-दूसरे को फांसने के प्रयत्न में लग जाएं तो क्या संसार का काम चलेगा? नहीं ।
भगवती सूत्र व्याख्यान १३१