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अदत्तादान में स्थूल और सूक्ष्म भेद है। स्थूल अदत्तादान का त्याग करके धीरे-धीरे सूक्ष्म अदत्तादान का भी त्याग करना चाहिए। शास्त्र में साधुओं के संबंध में कहा है कि अगर दो साधु एक साथ भोजन लाये और एक साधु ने उसमें से एक कौर भी अधिक खा लिया तो उसे अदत्तादान की क्रिया लगी। आप संसारव्यवहार में पचे रहते हैं। अगर इतने सूक्ष्म अदत्तादान का त्याग न कर सके तो भी आदर्श तो यही सामने रखना चाहिए। किसी को अन्तराय तो नहीं देना चाहिए।
__ इसी प्रकार अठारह पापों की क्रिया लगती है, इसलिए विवेक के साथ विचार कर पाप से बचने के लिए निरन्तर उद्योग करना चाहिए। अगर अठारह पापों का अलग-अलग विवेचन किया जाय तो उसका पार पाना कठिन है। अतः संक्षेप में ही उस पर प्रकाश डाला जाता है।
__क्रोध, मान, माया, लोभ और राग द्वेष का थोड़ा सा स्पष्टीकरण करना आवश्यक है। जीव को इन विकारों के द्वारा भी क्रिया लगती है। चाहे वह चीज हो या न हो, लेकिन यदि लोभ नहीं मिटेगा तो क्रिया लगेगी ही। उदाहरण के लिए, किसी आदमी के पास पांच ही रुपया है, मगर वह लखपति होने की चाह रखता है तो चाहे वह लखपति हो या न हो, उसे लखपति की क्रिया लगेगी। इससे विपरीत अगर कोई लखपति होकर भी अपनी सम्पत्ति के प्रति ममत्व नहीं रखता तो उसे संचय की ही क्रिया लगेगी, लोभ की क्रिया नहीं लगेगी।
प्रश्न होता है कि जब अठारह पाप स्थानों में क्रोध और मान का नामोल्लेख कर दिया है तो फिर द्वेष की अलग क्यों गणना की है? इसी प्रकार जब माया और लोभ का नाम गिना दिया है तब राग को अलग कहने की क्या आवश्यकता थी? इसका उत्तर यह है कि जिसमें क्रोध और मान-दोनों का समावेश हो जाता है, वह द्वेष कहलाता है और माया एवं लोभ के मिलने से राग होता है। जैसे दो रंगों के मिलने से तीसरा रंग तैयार हो जाता है, उसी प्रकार राग और द्वेष, क्रोध, मान, माया तथा लोभ से होने पर भी क्रोध और मान से द्वेष तथा माया और लोभ से राग होता है। अर्थात् दो-दो का एक-एक में समावेश हो जाने से अन्तर पड़ जाता है। ... प्रेम और द्वेष में भी बड़ा अन्तर है। यह भी प्रकृति का भेद है। पूर्ण वीतराग अवस्था में तो प्रेम का भी सद्भाव नहीं रहता, परन्तु नीची अवस्था में प्रेम रहता है। यहाँ प्रेम का अर्थ अभिष्वंग समझना चाहिए। अभिष्वंग रूप प्रेम, राग ही है, जिसे लोग प्रेम कहते हैं। उदाहरणार्थ किसी को स्त्री से, धन १३० श्री जवाहर किरणावली
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