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सावधानी न रखने से गफलत करने से सजा मिलने के सैकड़ों उदाहरण मिल सकते हैं। यही बात शस्त्रीय भाषा में प्रमाद के विषय में कही जा सकती है। संसार में प्रमाद के लिए मिलने वाली सजा के लिए तर्क-वितर्क नहीं किया जाता मगर शास्त्रों में कल्याण के लिए जो बात कही गई है, उसमें तर्क किया जाता हैं।
आत्मा में एक प्रबल विकार है, जिसे कषाय कहते हैं। जैसे विकारकारक वस्तु का सेवन करने पर वह अपना असर दिखलाती ही है, इसी प्रकार कषाय करोगे तो उसके परिणामस्वरूप कर्म भी आयेंगे ही। आत्मज्ञान होने पर कषाय भी शनै:-शनैः नष्ट हो जाते हैं।
पांचवां कारण योग है, जिसमें कषाय शेष नहीं रहा है-जो वीतराग हो गया है, उसमें भी यदि योग की चपलता है तो योग की क्रिया उसे लगेगी। जब तक मन, वचन, काय का परिस्पंदन होता है उनमें हलचल रहती है, तब तक किसी न किसी तरह दूसरे को पीड़ा पहुंचती ही है और जब तक अपने द्वारा दूसरों को पीड़ा पहुंचती है तब तक मोक्ष कैसे हो सकता है? योग न हो तो कर्म का ईर्यापथिक-आस्रव भी नहीं होगा, मगर यह संभव नहीं है कि योग हों और कर्म-बंध न हों। हां, कषाय के अभाव में सिर्फ योग के निमित्त से स्थितिबंध और अनुभागबंध नहीं होता, प्रकृति और प्रदेशबंध ही होता है। इस प्रकार कषाय के क्षय हो जाने पर और आत्मा का अनन्त वीर्य प्रकट हो जाने पर भी योग के कारण क्रिया लगती है। तब कषाययुक्त योगों की प्रवृत्ति तो कर्मबन्धन का कारण है ही।
मतलब यह है कि चाहे किसी को मालूम हो या न हो, आत्मा जब क्रिया करता है तब क्रिया लगती है। बिना किये क्रिया नहीं लगती। हां, अगर आत्मा गफलत से क्रिया करेगा तो गफलत से करने का पाप लगेगा और जानकर करेगा तो जानकर करने का पाप लगेगा। अतएव अगर क्रिया से बचना है तो सावधानी रखनी चाहिए।
गौतम स्वामी पछते हैं भगवन! अगर क्रिया करने से ही लगती है तो अपने करने से लगती है, दूसरे के करने से लगती है या अपने और दूसरे-दोनों के करने से लगती है? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमायाहे. गौतम! अपने करने से लगती है; दूसरे के करने से नहीं लगती।
कोई यह तर्क कर सकता है कि अगर एक पाप दो व्यक्तियों ने मिलकर किया तो व्यापार के नफे के माफिक पाप में भी हिस्सा क्यों नहीं हो जाता? बहुत से लोग इसी प्रकार के विचारों से सीधा लेकर खाते और सीधा १२२ श्री जवाहर किरणावली