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अब आप कहेंगे कि, करना, कराना और अनुमोदन करना, यह तीन भंग हैं। अगर क्रिया स्वयं न की तो एक भंग से तो बच गये? अगर हमने एक करण एक योग से त्याग किया है तो वह त्याग भंग नहीं हुआ!
इस प्रकार का विचार करके कई लोग घर की बनी रोटी न खाकर हलवाई की दुकान का खाना अच्छा समझते हैं। उनकी समझ यह है कि घर पर खाने से क्रिया लगती है और हलवाई की दुकान में दूसरा बनाता है, इसलिए क्रिया नहीं लगती। मगर यदि इस प्रकार ऊपरी दृष्टि से ही देखा जाय तो घर में भी आप रोटी नहीं बनाते, स्त्री बनाती है। पर चाहे हलवाई की दुकान से खरीद कर खाओ, चाहे घर की स्त्री की बनाई खाओ, क्रिया अवश्य लगेगी। मन के परिणाम जैसे होंगे, वैसी क्रिया लगे बिना नहीं रह सकती।
__ आप यह इच्छा नहीं करते कि हमारे लिए रेल चले। वह तो यों भी चलती है। आप उसमें बैठे या न बैठें, रेल चलेगी ही। आप केवल टिकिट लेकर उसमें बैठ जाते हैं, फिर भी क्रिया लगती है या नहीं लगती? इसके सिवा रेल तो रोज ही आती-जाती है, आपने अपने लिये नहीं चलवाई है; और बैलगाड़ी आप अपने ही लिए जुतवाकर कहीं जाते हैं; तो इन दोनों में से अधिक क्रिया किसमें लगती है? 'रेल में'
ऊपर से तो रेल की क्रिया शायद थोड़ी मालूम हो। और कोई यह भी समझ ले कि बहुत से आदमी रेल में बैठते हैं, इसलिए थोड़ी-थोड़ी क्रिया सब के हिस्से में आ जायेगी, लेकिन शास्त्र यह नहीं कहता। शास्त्र कहता है कि रेल बैठने वालों के लिए बनी है, अतएव सब बैठने वालों को रेल की क्रिया लगती है। इसी प्रकार हलवाई की दुकान पर मिठाई खरीददारों के लिए ही बनी है। उसे पैसे देकर जो लेता है, उसे मिठाई बनाने की क्रिया लगेगी। घर के चूल्हे में और हलवाई की भट्टी में यों भी बहुत अंतर है। श्रावक के घर लकड़ी, जल आदि सामग्री का विवेक रक्खा जायगा, मगर हलवाई के यहां यह विवेक कहां?
कभी-कभी अपने हाथ से काम करने में जितना पाप होता है, उसकी अपेक्षा दूसरे से काम कराने में अधिक पाप होता है, एक बार मेरे सांसारिक मामाजी ने दावत दी। उस समय मैं आठ दस वर्ष का था। मामाजी ने मुझसे भंग की पत्ती लाने को कहा। उस समय भंग का ठेका नहीं था। बाड़े में ही बहुत-सी भंग लगी थी। मैं बच्चा था। नहीं जानता था कि कितनी भंग की पत्ती से काम चल जायेगा। बच्चों को तोड़ने-फोड़ने का काम स्वभावतः ११८ श्री जवाहर किरणावली
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