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रुचिकर होता है। मैं कुर्ते का खोला भरकर भंग की पत्ती तोड़ लाया। मामाजी को थोडी-सी पत्ती ही चाहिए थी। उन्होंने कहा-क्यों ढेर पत्ती तोड़ लाया! मैं 'सकपका' कर रह गया और धीरे से कहा-मुझे क्या पता था?
मामाजी एक स्थानीय धार्मिक सेठ से ऐसे मामलों में बहुत डरते थे और उनसे लुक-छिप कर ही भंग काम में लेते थे। अतएव आवश्यक भंग रखकर शेष छिपाकर फेंक दी। अब आप विचार कीजिये कि भंग की सब पत्ती तोड़ने का पाप मामाजी को लगा या नहीं? अगर वे स्वयं तोड़कर लाते तो आवश्यकतानुसार ही तोड़ते और व्यर्थ के पाप से बच सकते थे।
सारांश यह है कि अपनी काया से कार्य न करने के कारण उस समय तक हिंसा से नहीं बचा जा सकता, जब तक उसके करने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपसे प्रेरणा अनुमोदना है। विवेक रखने पर ही क्रिया से बचाव हो सकता है। बहुत-सी श्राविकाएं सामायिक तो करती हैं, मगर उनसे पूछा जाय कि जल छानने की विधि क्या है? तो कह देंगी नौकरानी जाने! वे समझती हैं कि रोटी न बनाने से और परिंडे को हाथ न लगाने से हम क्रिया से बच गई।
आपको प्रवृत्ति बुरी ही बुरी लगती है, परन्तु सत्प्रवृत्ति के बिना निवृति नहीं हो सकती। प्रवृति में विवेक रखने के लिए ही यह उपदेश दिया जा रहा है। यहां सत्य का उपदेश दिया तो क्या दुकान पर उसका पालन नहीं करेंगे? अगर वहां स्वयं असत्य भाषण न करके, दूसरे पर असत्य भाषण का भार डाल देंगे तो यह आत्मवंचना होगी। अतएव क्रिया से बचने के लिए विवेक से काम लेना चाहिए।
क्रिया करने से लगती है या बिना किये लगती है? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया है कि करने से क्रिया लगती है, बिना किये नहीं लगती।
इस उत्तर पर यह तर्क किया जा सकता है कि शास्त्र में एक जगह तो लिखा है कि जीवन को चौदह राजू लोक की क्रिया लगती है और यहां कहा गया है कि करने से लगती है, बिना किये नहीं। इस परस्पर विरोधी कथन में से किसे वास्तविक माना जाय? जिन जीवों का हमें ध्यान भी नहीं है, जिनका स्मरण भी नहीं है, उनके सम्बन्ध में हमें क्यों क्रिया लगती है ? इसके उत्तर में ज्ञानी कहते हैं कि बहुत-सी बातें तुम्हें नहीं दिखतीं। तुम उन्हें नहीं जानते। तुम्हारी शक्ति क्या है? यह बोध होने पर ही तुम ऐसा तर्क कर सकते हो। अगर तुम्हें लोक के सब जीवों की क्रिया न लगती होती तो जबर्दस्ती लगाने की क्या आवश्यकता थी? ऐसा करने से किसी को क्या लाभ
- भगवती सूत्र व्याख्यान ११६