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है कि क्रोध से आंखें लाल हो गईं। क्रोध आने पर चेहरा लाल हो जाता है, यह कौन नहीं जानता? इस प्रकार विज्ञानवेत्ता यह स्वीकार करते हैं कि क्रोध करने वाले के शरीर से लाल रंग के पुद्गल निकलते हैं । वे शस्त्र के आकार के लाल रंग के पुद्गल जिस पर क्रोध किया जाता है, उसे स्पर्श करते हैं अगर वह दूसरा भी पहले के समान क्रुद्ध हो उठा तो उसके शरीर से भी ऐसे ही पुद्गल निकलते हैं और दोनों के शरीरों से निकले हुए पुद्गलों में युद्ध होने लगता है। इससे विपरीत, अगर दूसरे ने क्रोध नहीं किया-क्षमाभाव रक्खा तो जैसे जल से आग बुझ जाती है, वैसे ही पहले व्यक्ति के शरीर से निकले हुए शस्त्र पुद्गल भी बेकार हो जाते हैं। इसी कारण गौतम स्वामी ने यह प्रश्न किया है कि जीव दूसरे को स्पर्श करके प्राणातिपात क्रिया करता है या, बिना स्पर्श किये ही? इसका उत्तर भगवान् ने दिया है- स्पर्श करते ही ।
एक आदमी यहां से दूर बैठा है। यहां एक आदमी ने उसे मार डालने का विचार किया, जिससे उसे चार क्रियाऐं लग गईं। अगर उसने मंत्रादि का प्रयोग किया तो पांच क्रियाएं लगीं । यद्यपि वह आदमी दूर - बम्बई में बैठा है और मारने का विचार करने वाला यहां है। उसने उसे स्पर्श नहीं किया । लेकिन शास्त्र कहता है कि स्पर्श होने पर ही क्रिया लगती है, यह बात किस प्रकार संगत हो सकती है? यह बात दूसरी है कि किसी बात को समझाने वाला कोई न हो, परन्तु भगवान् ने अकारण ही यह वर्णन नहीं किया है। भगवान् की वाणी पर आस्था रखने से कभी कोई ऐसा पुण्यवान् भी मिलेगा जो उस बात का रहस्य आपको बतला देगा। धर्मशास्त्र में कहा है जिन वचनों के सुनने से क्षमा, अहिंसा आदि की शिक्षा मिलती है, वह ईश्वरीय वचन हैं और जिन्हें सुनने से क्रोध, हिंसा आदि दुर्भावों की जागृति होती है, वे चाहे ईश्वर के नाम पर ही क्यों न कहे गये हों, उन्हें मत सुनो।
क्रोध करने पर मन के पुद्गल कहां जाते हैं, यह बात विज्ञानवेत्ताओं यंत्रों की सहायता से देखी है, मगर भगवान् के पास यंत्र नहीं थे उन्होंने अपने -ज्ञान से किस प्रकार देखा होगा? इस बात का विचार करके भगवान् के वचन पर विश्वास रखना चाहिए। दूरवर्ती मनुष्य का मानसिक पुद्गलों के साथ किस प्रकार स्पर्श होता है, यह पहले बतलाया जा चुका है ।
जीव चाहे कहीं भी रहे, उसका स्पर्श हो या न हो, तब भी उसके प्रति बुरी भावना होने से हिंसा का पाप लगता है: ऐसी सद्भावना अन्तःकरण में उत्पन्न होने पर आत्मा का एकान्त हित ही होता है, अहित नहीं होता । भगवती सूत्र व्याख्यान ११५