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इसका उत्तर जितनी स्पष्टता से जैन शास्त्रों में मिलेगा, अन्यत्र कहीं नहीं मिल सकता। यह बात जैन धर्म के प्रति अनुराग होने के कारण ही मैं नहीं कहता हूं, किन्तु वास्तविक है लोक और अलोक की सीमा कोई बतलावे ? फिर भी अगर मैं न मानूं तो पक्षपात कहा जा सकता है।
जैन शास्त्र का कथन है कि जैसे जल और स्थल की सीमा है, वैसी ही लोक और अलोक की भी है। जहां स्थल भाग माना जाता है और जहां जलभाग न हों वहां स्थल भाग माना जाता है, इसी प्रकार की बात लोक और अलोक के विषय में भी है ।
यूरोप के वैज्ञानिक इस बात को मानने लगे हैं कि जीव और जड़ पदार्थ में जो गति होती है, वह आप ही आप नहीं होती । न जीव आप ही अकेला गति कर सकता है, न जड़ पदार्थ ही । किन्तु किसी भिन्न पदार्थ की सहायता से ही गति होती है। अब देखना यह है कि गति में सहायता देने वाला वह पदार्थ कौनसा है ?
धर्मास्तिकाय नामक पदार्थ जल के समान है। वह जहां है वहां तक उतना आकाश लोक कहलाता है और जिस आकाश में वह नहीं है, वह अलोक कहलाता है । यह प्रश्न हो सकता है कि धर्मास्तिकाय का हमें किस प्रकार पता चल सकता है? वह इतना सूक्ष्म है कि दृष्टिगोचर नहीं होता; लेकिन जैसे मछली पानी की सहायता से गति करती है, पानी की सहायता के बिना गति नहीं कर सकती, इसी प्रकार जीव और अन्य गतिशील जड़ पदार्थ (पुद्गल) धर्मास्तिकाय की सहायता से ही गति करते हैं, इसकी सहायता के अभाव में गति नहीं कर सकते।
अगर लोक और अलोक की सीमा करने वाला कोई पदार्थ न होगा तो लोक के पदार्थ अलोक में- अनन्त आकाश में चले जाते और फिर उनका मिलना असंभव हो जाता। इसलिए लोक और अलोक की सीमा माननी पड़ेगी और साथ ही यह भी मानना पड़ेगा कि लोक में ऐसी कोई शक्ति है, जो लोक के पदार्थों को लोक में ही रखती है । उसी शक्ति को जैन शास्त्र धर्मास्तिकाय कहते हैं। इस धर्मास्तिकाय की शक्ति से ही जीवादि पदार्थ गति करते हैं । लेकिन उनकी गति वहीं तक सीमित है, जहां तक धर्मास्तिकाय है । धर्मास्तिकाय के अभाव में गति भी रुक जाती है। इसी कारण जीवादि पदार्थ लोक से बाहर अलोक में नहीं जाने पाते । तात्पर्य यह है कि जिस आकाश खंड में धर्मास्तिकाय है, वह लोक कहलाता है और जिसमें धर्मास्तिकाय नहीं है उसे अलोक कहते हैं ।
भगवती सूत्र व्याख्यान ६६