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प्रश्न-भगवन्! लोक का अंत (किनारा) अलोक के अन्त को स्पर्श करता है? और अलोक का अन्त लोक के अन्त को स्पर्श करता है?
उत्तर-गौतम! हां, लोक का अन्त अलोक के अन्त का और अलोक का अन्त लोक के अन्त को स्पर्श करता है।
प्रश्न-भगवन्! जो स्पर्श किया जा रहा है, वह स्पृष्ट है या अस्पृष्ट
उत्तर-हे गौतम! यावत्-नियम पूर्वक छहों दिशाओं में स्पृष्ट होता
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प्रश्न-भगवन्! द्वीप का अन्त (किनारा) समुद्र के अन्त को स्पर्श करता है ? और समुद्र का अन्त द्वीप के अन्त को स्पर्श करता है?
उत्तर-हे गौतम! हां, यावत्-नियम से छहों दिशाओं में स्पर्श करता
प्रश्न-इस प्रकार, इसी अभिलाप से इन्हीं शब्दों में पानी का किनारा पोत (नोका-जहाज) के किनारे को स्पर्श करता है? छेद का किनारा वस्त्र के किनारे को स्पर्श करता है? और छाया का किनारा आतप के किनारे को स्पर्श करता है?
उत्तर-हे गौतम! हाँ यावत्-नियमपूर्वक छहों दिशाओं में स्पर्श करता
व्याख्यान गौतम स्वामी पूछते हैं-भगवन् ! क्या लोक के अन्त ने अलोक के अन्त को और अलोक के अन्त ने लोक के अन्त को स्पर्श कर रक्खा है? इस प्रश्न का भगवान् ने यह उत्तर दिया-हे गौतम! हां, स्पर्श कर रक्खा है। तब प्रश्न किया गया-कितनी दिशाओं में स्पर्श किया है? भगवान् ने उत्तर दिया-छहों दिशाओं में स्पर्श किया है।
बहुत से लोग, लोक और अलोक की परिभाषा भी शायद न जानते हों। लोक और अलोक द्वारा बाह्य सृष्टि का ही विचार नहीं किया जाता, किन्तु आत्मिक विचार भी उसमें सन्निहित है। जैसे नारियल का गोला और उसके चारों ओर का आवरण अलग अलग हैं, तथा एक से दूसरा आच्छादित है उसी प्रकार लोक और अलोक भी हैं। विस्तृत-असीम अलोक है और उसके बीच में लोक है। लोक और अलोक के परिभाषित शब्द अन्य शास्त्रों में भी पाये जाते हैं। कोई चौदह तबक (स्तवक) कहता है। लेकिन उनसे अगर यह पूछा जाय कि लोक और अलोक की सीमा किस प्रकार निश्चित की गई है, तो ६८ श्री जवाहर किरणावली
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